Friday, November 25, 2011

महिला राजनीतिक सशक्तिकरण और मीडिया


                     महिला राजनीतिक सशक्तिकरण और मीडिया


मीडिया और स्त्री के निहितार्थ विभिन्न घटकों में मीडिया के सापेक्ष स्त्री और स्त्री के सापेक्ष मीडिया का मूल्यांकन शमिल है। आज के मीडिया का अर्थ जहां अब तोते, कबूतर, दूत-दूती, पोस्टमैन, घोड़ा वगैरह नहीं रह गया है, वहीं आज की स्त्री का मतलब भी करूणामूर्ति, हूर, अबला, मां, बहन, पत्नी, कुमारी, सुकुमारी आदि तक सीमित नहीं है। मीडिया हमारे समय का बहुत प्रबल घटक है। और, महिला हमारे समय में अपनी पहचान और छाप और होने की पूरी शिद्दत के साथ अपने बूते पर दर्ज कराने के लिए संघर्ष कर रही है। इस संदर्भ में महिला मीडिया की ओर आषा भरी निगाहों से देख रही है। मीडिया अपनी चमक को और चमकीला बनाने के लिए स्त्री का उपयोग करने के लिए आतुर है, जबकि स्त्री अपनी अस्मिता को साबित करने के लिए मीडिया का उपयोग करने के वास्ते हलकान है। इस जुगलबंदी में मीडिया की मंषा और उसका वर्तमान तो काफी हद तक स्पष्‍ट है। लेकिन, स्त्री की मंशा और उसकी ऐतिहासिक स्थिति इससे काफी जटिल है। आंकड़ें बताते हैं कि आधुनिक विश्‍व में सामाजिक स्तर पर क्या विकसित, क्या विकासशील और क्या अविकसित देशों में थोड़े-बहुत हेर-फेर के स्त्री को पुरूष के सापेक्ष दोयम दर्जे का ही नागरिक माना जाता है, और इसी आधार पर उनके साथ होने वाला उत्पीड़न प्रायः सार्वभौमिक है। इस दृष्टि से समूची दुनियां की स्त्री के दुख, समस्या और परिस्थिति एक जैसी है। और, स्त्री की सत्ता कई तरह से बीच बहस में है, केंद्र में है।

समकालीन परिवेश में विश्‍व की गिनी-चुनी शक्तियों में मीडिया की शक्ति को नकारा नहीं जा सकता है। अस्तु, मीडिया सशक्त माध्यम है, जनभावनाओं को व्यक्त करने का। मीडिया अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से रखता है, जिसका सीधा-सीधा प्रभाव देखने वालों पर पड़ता है। साथ ही मीडिया ने वैश्विक दूरियों को कम किया है। राष्‍ट्रीय और वैश्विक स्तर पर घटित घटनाओं को सामने रखा है। मीडिया के दोनों माध्यमों इलेक्ट्रॅनिक मीडिया तथा प्रिंट मीडिया का आज भी खास प्रभाव है। इसलिए महिलाओं से जुड़े तमाम देखे-अनदेखे, ज्ञात-अज्ञात मुद्दों को सामने लाने में मीडिया की भूमिका ध्यातव्य है। मीडिया में इस हेतु संवेदनशील गहरी अंतदृष्टि अपेक्षित है। इतना ही नहीं, वैश्विक समस्याओं से लेकर स्थानीय मामलों तक को मीडिया उठाता है हालांकि, जीवन के सथार्थ से जुड़े मुद्दों को लेकर मीडिया के दोनों माध्यमों की सक्रियता कम दिखती है, अभिरूचि कम दिखती है। इस संदर्भ में उदाहरण स्वरूप कहना चाहिए कि वे स्त्रियों से जुड़े मामलों को उतना महत्त्वपूर्ण नहीं मानते है। मीडिया में भी वही पितृसत्तात्मक मानसिकता काम करती है, जो सदियों से स्त्रियों के लिए नियम-कायदे बनाती चली आई है।

इसमें संदेह नहीं कि मीडिया ने स्त्री के लिए संभावनाओं के कई आयाम खोल दिए हैं। ये जितने रूपहले और चमकीले हैं, उतने ही आत्मस्मृति मुलर (अपने को पहचान की सुविधा प्राप्त करने वाले) और आत्मनिखार के अवसर देने वाले भी। हम अगर उसे वैश्विक संदर्भ में सिर्फ़ बाजार मान लें, तभ भी एक यह गुंजाइश तो बची ही रहती है कि हम वहां एक प्रतिस्पर्धी उपस्थिति के लिए स्वाधीनता के साथ संघर्षरत रहें। गायन, नृत्य, अभिनय, कला-कौशल की अन्य भूमिकाओं में मीडिया ने स्त्री के लिए लगभग युगांतर की स्थिति / उपस्थिति पैदा कर दिया है। जानी-मानी गायिकाएं, युवा-नृत्यांगनाएं, अभिनेत्रियां अनेक महत्वपूर्ण चैनलों से जुड़ी सूचना और संवाद दूतियां इस सच्चाई को प्रमाणित करती हैं कि महिलाओं के जीवन के इतिहास में एक नए युग की शुरूआत हो चुकी है। इस संदर्भ में मीडिया हस्तक्षेप व दखल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसलिए अब महिलाओं के समक्ष चुनने की क्षमता अथवा उनके विकल्पों में इज़ाफा हुआ हैं और वह नई दृष्टि से अपने आस-पास को देखने लगी हैं। मेरा मानना है कि स्त्री हमेशा से अधिक नैतिक, मानवीय और उर्जामयी रही है। आगे भी उसकी यही छवि रहेगी। क्योंकि, वह जितनी भावनात्मक है, उतना ही मर्यादामय भी। मीडिया की कार्यशैली व सोच में महिला की दृष्टि बहुत अधिक दिनों तक अछूती नहीं रहेगी। वह आयाम एक नयी दृष्टि लेकर महिला सशक्तिकरण के समस्त प्रयासों को उर्जामय बना देगी, ऐसी संभावना व्यक्त की जा सकती है।

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