Monday, May 2, 2016

पति ने बनाई पत्नी की नीली फिल्म

पति ने बनाई पत्नी की नीली फिल्म

ललितपुर। सात फेरे सात वचनों के साथ जुड़ने वाला पति पत्नी का रिश्ता पवित्र रिश्ता होता है। जिसमें पति अपनी पत्नी की रक्षा करने के लिए वचन उठाता है, पर जब पति ही रिश्तों को तार-तार करने लगे तो समाज में पत्नी कहां सुरक्षित महसूस करेगी। ऐसा ही वाकिया जिला ललितपुर में घटित हुआ। पूरे मामले पर प्रकाश डाला जाए तो आरती वर्मा (काल्पनिक नाम) निवासी लैडिया पुरा, हाल निवासी वर्णी जैन इंटर कॉलेज के पीछे, आजादपुरा, ललितपुर का विवाह कुछ वर्षों पूर्व लखनऊ निवासी प्रवीण के साथ हुआ था। पिता ने अच्छा घर और लड़के को परखने के उपरांत आरती का विवाह किया था, पर किस के मन में क्या है? कौन जान सकता है? शादी के बाद आरती अपने ससुराल लखनऊ चली गई। विवाह के कुछ वर्षों के अंतराल में आरती को दो कन्याएं पैदा हुई। चूंकि लड़का अपनी कारगुजारी और बुरे कर्मों की वजह से कहीं कुछ नहीं करता था। इसी बीच आरती का चयन जिला ललितपुर में अनुदेशक (संविदा पर) के पद पर हुआ तो वह लखनऊ से ललितपुर आ गई। ताकि वह अपनी बच्चियों की परिवश सही तरीके से कर सके। इसी वजह से उसने आजादपुरा ललितपुर में ही एक मकान किराए पर लेकर रहने लगी। वहीं प्रवीण का देखा जाए तो वह कुछ दिन ललितपुर में तो कुछ दिन लखनऊ आता-जाता रहता है।
गौरतलब है कि प्रवीण के गलत संगत और कुछ न करने की वजह से बार-बार आरती से अपने खर्चों के लिए रुपया मांगने का सिलसिला बरकरार रहा। इसी बीच प्रवीण के शैतानी दिमाग की उपज ने आरती की नीली फिल्म बना ली। जब आरती को पता चला तो उसने इस बात का विरोध किया। विरोध का नतीजा कुछ यूं हुआ कि वह आरती के साथ मारपीट करने लगा, और अपनी पत्नी की नीली फिल्में बनाकर मार्केट में बचने लगा। हालांकि ज्ञात सूत्रों के मुताबिक पता चला कि प्रवीण शायद अपनी पत्नी से धंधा भी करवाता है। क्योंकि रात में अक्सर लोगों का आना-जाना लगा रहता है।
अगर देखा जाए तो प्रवीण द्वारा आरती की बनाई गई नीली फिल्में जिला ललितपुर में कई लोगों के पास मौजूद हैं। अब आरती की यह फिल्में प्रवीण ने किस-किस को बेची यह प्रवीण ही बता सकता है। हालांकि जब हमारे संवाददाता ने इस संदर्भ में प्रवीण से फोन पर बात करने की कोशिश की तो उसने संवाददाता से बदसलूकी करते हुए कहां कि आप हमें परेशान कर रहे हैं। यह हमारा आपसी मामला है, तुम कौन होते हो हमारे बीच में आने वाले, मैं जो चाहे अपनी पत्नी से करवाऊ। और फिर फोन अपनी पत्नी आरती को पकड़ा दिया। चूंकि मामला नीली फिल्म और लड़की से संबंधित था तो हमारे संवाददाता ने इस वाबत् कोई ज्यादा पहल नहीं की। क्योंकि हो सकता था कि पति के दबाव में चलते वह संवाददाता पर ही आरोप लगा देती ही यह हमारे साथ बदसलूकी कर रहा था, क्योंकि ऐसे कई झूठे मामले आज भी न्यायालय में लंबित चल रहे है। वैसे हुआ भी कुछ यूंही......... प्रवीण ने 1090 महिला हेल्प लाइन पर शिकायत दर्ज करवा दी कि उक्त व्यक्ति मेरी पत्नी को परेशान परेशान कर रहा है। जिस संदर्भ में हमारे संवाददाता ने पुलिस अधीक्षक महोदय को संबंधित मामले से अवगत कराया। पुलिस अधीक्षक महोदय ने मामले को गंभीरता से लेते हुए महिला थानाध्यक्ष को उक्त मामले की जांच कर जल्द ही कार्यवाही करने के आदेश दे दिए है।
डॉ. गजेन्द्र प्रताप सिंह

ब्यूरो चीफ- टाइम न्यूज, ललितपुर

Thursday, May 1, 2014

नीले गगन के तले, झांडियों में प्‍यार पले..........

नीले गगन के तले, झांडियों में प्‍यार पले..........

प्‍यार....प्‍यार....प्‍यार कौन सा प्‍यार और कैसा प्‍यार................. तितली वाला या फूल वाला, नदी वाला या समुंदर वाला, चांद वाला या चांदनी वाला, धूप वाला या छांव वाला, दोस्‍त वाला या दुश्‍मन वाला, भूख वाला या दौलत वाला, रूह वाला या जिस्‍मानी......प्‍यार को अपने-अपने अनुसार परिभाषित किया जा सकता है। अलग-अलग जगहों पर परिस्थिति के अनुकूल। अलग-अलग परिस्थितियों के अनुरूप यह अपनी मूल विधा से उन्‍मुक्‍त होकर हर बंधन से परे चला जाता है। जहां इसका अस्तित्‍व वक्‍त और स्थिति के साथ स्‍वत: बदल जाता है। आज के दौर में बदलना ही इसकी नियति है। इस नियति में बदलाव के पीछे नैतिकता के पतन और जल्‍द जवां होती चाहत को मान सकते हैं क्‍योंकि नैतिकता के पतन और जल्‍द जवां होने की चाहत ने प्‍यार के वास्‍तविक मायने ही बदल दिए। आज प्‍यार आंखों से तो शुरू होता है पर दिल की गहराईयों में न उतरते हुए, झांडियों के झुरमुट में अपना दम तोड़ देता है। इस प्‍यार को रूहानी प्‍यार की संज्ञा तो कभी नहीं दी जा सकती,  हां इसके क्रियाकलापों को देखते हुए इसे जिस्‍मानी प्‍यार का दर्जा अवश्‍य दिया जा सकता है। जो पल-पल बदलते समय के साथ अपनी स्थिति बदलता रहता है। कभी इसकी बांहों में तो कभी उसकी बांहों में....... पनपता रहता है। एहसास नहीं होता इनको, क्‍योंकि यह लोग भावनात्‍मक बंधनों से पहले ही मुक्‍त हो चुके होते हैं। इनके बीच एक प्रकार का अदृश्‍य अनुबंध, जिसमें जब तक मन हो प्‍यार की पेंगे भरी जा सकती हैं और यदि किसी एक का मन उचटा नहीं, कि अनुबंध स्‍वत: ही खत्‍म। खत्‍म हुए इस अनुबंध पर चाहे तो आपसी संबंधों की सहमति के आधार पर कुछ समय के उपरांत पुन: अपनी स्‍वीकृति प्रदान कर सकते हैं, नहीं तो किसी अन्‍य के साथ अनुबंध करने की आजादी उनके पास हमेशा ही रहती है। यह युवा पीढ़ी का धधकता हुआ युवा जोश है, जो विकास के नए नमूने को यदाकदा इजाद करता रहता है। वैसे हमारे वैज्ञानिकों ने प्‍यार के मिलाप से उत्‍पन्‍न होने वाली झंझट से इस जवां पीढ़ी को बेफ्रिक कर दिया है। शायद वो युवा जोश को पहले ही भांप गए थे कि आने वाली पीढ़ी किस तरह अपना रंग बदलेगी। तभी तो गली-गली हर कूचे में बेफिक्री की दवा आसानी से उपलब्‍ध हो जाती है। यह प्‍यार को बरकरार रखने के तरीके और किसी अन्‍य प्रकार की झंझट से मुक्ति का आश्‍वासन अवश्‍य ही जवां चाहतों को दिला पाने में सक्षम है। क्‍योंकि प्‍यार के मायने बदल गए हैं......
आज प्‍यार का ढांचा खोखली नींव पर खड़ा किया जाता है या होने लगा है। उसमें भी मिलावट देखने को मिलने लगी है। क्‍योंकि यह झांडियों वाला प्‍यार है, अब यह पतंगों वाला प्‍यार नहीं रहा। अब तो यह दुपट्टें में छुपी अंतरंग अवस्‍था का वो कपड़े उतारू प्‍यार, सामाजिक मान-मर्यादा से परे, बंदर-बंदरियों सी हरकते करते हुए समाज को अपनी मोहब्‍बत का तमाशा दिखाते रहते हैं कि आओं देखों हमारी नग्‍नतापूर्ण मोहब्‍बत को, जिसे हम खुले आम बाजार में नीलाम कर रहे हैं। यह प्‍यार तो नहीं है पर प्‍यार जैसा प्रतीत कराने की वो नाकाम कोशिशें जिन्‍हें यह जवां जोड़े समाज पर थोपने का काम बखूबी कर रहे हैं। हां यह कुछ समय बाद हमारी रंगों में खून बनकर जरूर दौड़ने लगेगा। और हमारी आने वाली नई जवां पीढ़ी भी इस नैतिकता को और अधिक ताख पर रखकर खुलआम सड़कों पर अपनी जिस्‍मानी जरूरतों की पूर्ति करते हुए देखे जा सकेंगे।
अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होना चाहिए कि भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में प्‍यार ने नैतिकता का हनन पश्चिमी सभ्‍यता से भलीभूत होकर ही किया है। क्‍योंकि तमाशबीन प्‍यार भारतीय सभ्‍यता में कभी नहीं रहा। हां यह प्‍यार लुकछिप के भारतीय संस्‍कृति में हमेशा से फल फूलता रहा है, पर नग्‍नता से विमुक्‍त होकर। परंतु जिस तरह पश्चिमी संस्‍कृति में नंगापन अपने पुरजोर पर हावी है उसी नंगेपन के जहर ने भारतीय युवा वर्ग को भी अपनी चपेट में भी लिया है। नंगेपन के जहर की चपेट में आए युवा वर्ग से यह बात तो अवश्‍य ही साबित होती है कि भारतीय युवा वर्ग सकारात्‍मक की अपेक्षा नकारात्‍मक प्रवत्ति को शीघ्र ही आत्‍मसात कर लेते हैं बिना उसके प्रभावों को समझते हुए। और वो पश्चिमी संस्‍कृति के समान आजाद होने की ललक के चलते वहां के नंगे प्‍यार का धीरे-धीरे अपनाते जा रहे हैं, तभी तो चार दिवारी से निकलकर यह प्‍यार सड़कों के किनारे बने पार्कों की झाडियों, सुनसान पड़े खंडहरों, खुलेआम पत्‍थरों की जरा सी आड़ में पनपने लगा है।


Thursday, March 20, 2014

दंगें की आग.........

दंगें की आग.........

रात के सुनसान सन्नाटे में अपने तेज कदमों के साथ बढ़ा जा रहा था। मंजिल पर पहुंचने की जल्दी भी थी और विरान पड़ी सड़क पर उपजने वाली डरावनी आवाज से पनपने वाला भय भी था। तेज कदमों के साथ दिल की धड़कनें भी तेज हो रहीं थीं। जिस पर इमरान का बस नहीं चल रहा था, चाह कर भी इमरान भय के कारण बढ़ने वाली धड़कनों पर काबू पाने में खुद को असमर्थ महसूस कर रहा था। फिर भी कदमों को तेज और तेज बढ़ता ही जा रहा था। वैसे इमरान जिस इलाके से गुजर रहा था वो पिछले दस दिनों से कफ्र्यू की चपेट में था। पूरा इलाका किसी शमशान से कम नहीं लग रहा था, जगह-जगह आग की लपटों में कुछ न कुछ जल रहा था। कहीं लाठी, कभी चक्कू, कहीं तलवार, कहीं कट्टा तो कहीं जिंदा बम पड़े हुए थे जो फटने के लिए अपनी सांसे धीरे-धीरे तेज कर रहे थे। जगह-जगह क्या बूढ़ा, क्या जवान, क्या महिलाए और क्या बच्चे। न जाति, न धर्म बस संप्रदायिकता की मार से मुर्दा पड़ी उनकी अस्त-व्यस्त लाशें, आस लगाए कि कहीं कोई अपना बचा हो, जो हमें ठिकाने लगा दे। पर ऐसा नहीं था, दूर-दूर तक लाशों का जमावड़ा ही था। कौन किससे आस करे? पूरे के पूरे परिवार खत्म हो चुके थे।
वैसे कोई भी नहीं जान पा रहा था कि इस दंगें की चिंगारी को हवा कहां से और किसने दी? जिसकी आग में पूरा शहर जल उठा। जिसने सबको अपनी चपेट में ले लिया था। सरकार ने दंगें पर काबू पाने के उद्देश्य से कफ्र्यू का सहारा लिया और पूरे 12 दिनों तक कफ्र्यू लगा रहा। चारों तरफ सिर्फ पुलिस ही पुलिस, दंगों को रोकने के लिए तैनात थी। बावजूद इसके दंगा रह-रहकर भड़क उठता, जो 20-25 लोगों को निगलकर शांत हो जाता। उसी इलाके से रात को इमरान गुजर रहा था। इसी बावत एक भय दिल में बना हुआ था। जिससे न चाहते हुए भी खुद को निकाल नहीं पा रहा था। चला जा रहा था, टुकड़ों में विभाजित हो चुकी लाशें, जो कुछ दिन पहले जीती जागती हुआ करती थीं। उनको लांघते हुए एक शायर की चंद पक्तियां उसके जहन में आने लगीं। ‘‘एक दिन हुआ सबेरा, दिल में कुछ अरमान थे..... एक तरफ थीं झोपड़ियां, एक तरफ शमशान थे..... चलते-चलते एक हड्डी पैरों के नीचे आई, उसके यही बयान थे...... ऐ भाई जरा संभलकर चलना, हम भी कभी इंसान थे....’’ हां यह भी कभी जिंदा इंसान थे। उन्हीं से बचते-बचाते इमरान तेज रफ्तार से चला जा रहा था कि अचानक एक तरफ से किसी के बिलखने की आवाज ने दिल की धड़कनों को और बढ़ा दिया। उस ओर से आ रही मार्मिक रोने के आवाज ने जैसे पैरों को एकाएक रोक दिया। न चाहते हुए भी पैर खुद-ब-खुद रोने की दिशा की तरफ चल पड़े। थोड़ा चलने के बाद इमरान के पैर फिर थम गए, क्योंकि आवाज एक झोंपड़ी के अंदर से आ रही थी। झोंपड़ी के अंदर जाने की हिम्मत वो बहुत देर तक बटोरता रहा। जब हिम्मत ने साथ दिया तो अंदर घुस गया। अंदर का नजारा सभ्य पुरुष समाज की दरिंदगी की पूरी कहानी को खुद-ब-खुद बयां कर रहा था। एक 14-15 साल की बच्ची, जमीन पर पड़ी बिलख रही थी। उसके तन पर जालिमों ने एक भी कपड़ा नहीं छोड़ा था। पास जाकर देखा तो उसकी रूह ही कांप गई। उस बच्ची पूरे शरीर पर जगह-जगह पड़े घावों से खून रिस-रिस कर बह रहा था।
भेडिया और गिद्धों के समूह ने उस मेमने समान बच्ची को अपनी-अपनी हैवानियत पूरी करके जिंदा लाश बनाकर छोड़ दिया था। उसको देखकर इमरान के पैरों में मानों जान ही न बची हो। पैर खुद ही लड़खड़ाने लगे। और इमरान उसके पास ही बैठ गया। बच्ची ने इमरान को देखकर अपने नग्न शरीर को अपने हाथों से छुपाने की नकाम कोशिश करने लगी। इमरान ने उसके सिर पर हाथ रखा तो वह बुरी तरह कांपने लगी। डरो नहीं, मैं तुम्हारी मदद करने आया हूं। डरो नहीं। इमरान वहां से उठा और झोंपड़ी के कोने-कोने में देखने लगा। कहीं कोई कपड़ा मिल जाए, जिससे इसके नग्न बदन को ढांक सकूं? पर पूरी झोंपड़ी में कहीं कुछ भी नहीं मिला। इमरान झोंपड़ी के बाहर आ गया। कुछ देर तलाशते रहने के बाद भी उसे कहीं कुछ इस तरह को नहीं दिखा जिससे उस बच्ची के तन को ढांका जा सके। एकाएक उसकी दृष्टि पास ही पड़ी एक महिला की लाश पर गई। जिसके तन पर साड़ी थी। इमरान उस महिला की लाश से साड़ी उतारने लगा। दिमाग में ख्याल आया कि मैं भी किसी महिला को नंगा कर रहा हूं। फिर ख्याल आया कि किसी मृत पड़ी लाश की अपेक्षा उस बच्ची को इसकी जरूरत ज्यादा है। इमरान ने उस महिला की लाश से साड़ी उतारी और वापस उस झोंपड़ी में आ गया। वहां पहुंचा, तो देखा वो अब रो नहीं रही थी। इमरान उसके पास बैठ गया और उससे कहा.... लो इसको पहन लो... उसने कोई रिस्पोंस नहीं दिया। उसने पुनः उससे कहा कि बेटा इसको पहन लो... पर कोई जवाब नहीं। उसके कंधे पर हाथ रखा तो उसका शरीर ठंडा पड़ चुका था। समझते देर नहीं लगी कि अभी तक जिंदा बच्ची लाश में तबदील हो चुकी है। आंखों से आंसू बह निकले। मृत हो चुकी उस बच्ची के नग्न शरीर पर उस मृत महिला की साड़ी से ढंक दिया। एक मृत की साड़ी उतारकर दूसरे मृत के नग्न शरीर को इमरान ढंक रहा था। उसके शरीर को साड़ी से ढंकने के बाद उसने उस बच्ची की लाश को अपने हाथों में उठा लिया और झोंपड़ी से बाहर निकलकर चल पड़ा। कुछ दूर पर चलने के बाद इमरान ने उस बच्ची की लाश को जमीन पर रख दिया और यहां वहां से लकड़ियां जुटाकर, दंगें की ही आग में उसको स्वाहा कर दिया।

http://gajendra-shani.blogspot.in/2014/03/blog-post.html

Sunday, November 17, 2013

मीडिया में महिला खबरें गौण

मीडिया में महिला खबरें गौण

मीडिया अपनी मिशन की यात्रा करते हुए आज कालपनिक दुनिया का सफर तय करने लगा है। जिसमें हर चीज कल्पना के इर्द-गिर्द घुमती हुई दिखाई देती है। कालपनिक दुनिया ने जैसे हमारे सीमित उपयोगितावादी चेतना तंत्र को मानो डंस लिया है। जिसका जहर हम सब की रगों में खून बनकर दौड़ता मालूम पड़ता है। वैसे मीडिया इस कालपनिक दुनिया का सहारा लेकर हमारे समाज में वेश्या जैसी भूमिका निभाता हुआ प्रतीत होता है। जिसको न तो अपयाना जा सकता है और न ही तिरस्कार। हालांकि व्यापक समाज किसी भी तंत्र के प्रति निर्विकार रह सकता है, परंतु यदि उसमें सभ्य आचरण की अंतरंगता को विज्ञापनी व्यावसायिकता में तब्दील करके सभ्य संभोग का प्रस्तुतिकरण करके दिखाए जाने के उपरांत यदि वह उत्तेजित हो उठता है, तो इसमें स्वार्थ या पाखंड का मूल तत्त्व विराजमान है। इस तत्त्व का बचाव यह कह कर नहीं किया जा सकता कि यह बुराई तो एक आदिम बुराई है और मीडिया एक आधुनिक घटना, जिससे यह उम्मीद नहीं की जाती कि वह इस अश्लीलता को प्रोत्साहित या सहन करेगा। तनिक-सा गौर करते ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि जहां तक स्त्री का ताल्लुक है, तथाकथित आदिम और तथाकथित आधुनिक दृष्टियों में कोई बुनियादी फर्क नजर नहीं आता है। साथ ही यह भी कि संगठित इस तंत्र के जन्म के पीछे जो व्यावसायिक दबाव थे, वही दबाव आज मीडिया में देखने को मिल रहे हैं। क्योंकि अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि यही व्यावसायिकता कहीं-न-कहीं मीडिया उद्योग की भी प्राणवायु बन चुकी है।
वैसे मीडिया में सभी तरह की खबरों का समावेश देखने को मिलता है, परंतु मीडिया में प्रकाशित/प्रसारित खबरों में स्त्री हमेशा गुम रही है। क्योंकि उसे सार्वजनिक जीवन से बाहर रखा गया है। फिर भी स्त्रियों के साथ चूंकि बहुत कुछ ऐसा घटित होता रहता है जिससे हमारी यथास्थितिवादी चेतना को भी धक्का पहुंचता है। अतः स्त्रियों को मीडिया में लाना जरूर हो जाता है। लेकिन अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि वे स्त्रियों  से संबंधित खबरें नहीं हैं। वे भी पुरुषों की ही खबरें हैं-उन पुरुषों की खबरें, जिन्होंने स्त्रियों के साथ कुछ अमान्य आचरण किया है। मसलन दहेज के लिए प्रताडित, हत्या, छेड़छाड़, बलात्कार, नारी देह का प्रदर्शन आदि, जो पुरुष ने किया है और वह स्त्री के साथ हुआ है। वैसे उसके लिए कोई नाम तक नहीं है हमारे पास। इससे पता चलता है कि घटनाओं के बयान करने वाली हमारी शब्दावली तक कितनी नकाफी है।
अब प्रश्न यह उठता है, कि स्त्रियों से संबंधित खबरें क्या हो सकती है? ये खबरें वही हो सकती हैं जिसके केंद्र में स्त्री यानी उसकी स्थिति, उसकी समस्याएं और उसकी सक्रियता हो। हालांकि स्त्री की ऐसी सक्रियता बहुत कम ही है जो खबरों का रूप ले सके। यह एक ऐसा पहलू है, जिस पर स्त्रियों को गइराई से विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि पुरुष सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे हैं अथवा उसका दुरूपयोग कर रहे हैं, इसलिए वे हमेशा खबरों के केंद्र में आ जाते हैं। इस संघर्ष रणनीति में स्त्री नहीं के बराबर मौजूद हैं और जितनी है भी, वह चर्चा का विषय बनती ही है। इसलिए सीमित होने के कारण स्त्री के अपने संघर्ष मीडिया में प्रतिबिंबित नहीं होते। इसका कारण यह यथास्थितिवादी सोच ही है कि स्त्रियां मौजूद सत्ता संतुलन को छेड़ कर जैसे कुछ अनैतिक काम कर रही हैं। इस मामले में उनकी हैसियत आदिवासियों या हरिजनों से भी गई-गुजरी है।
वस्तुतः यह है कि स्त्री को लगातार हजारों कामुक निगाहों का सामना करना पड़ता है। घर, बाहर लगातार उसे स्त्री होने का दंड भोगना पड़ता है, तो क्या यह बात मीडिया में प्रकाशित/प्रसारित करने लायक है-उस मीडिया में, जो स्वयं इस प्रक्रिया से पूरी तरह बरी नहीं हो पाया है? कौन-सा अपराध संवाददाता इन छोटी-छोटी, किंतु गंभीर घटनाओं की दैनिक सूची बनाता है? वैसे स्त्री के सभी मौलिक अधिकार, जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या जहां इच्छा हो वहां जाने का अधिकार तो हमेशा निलंबित रहते हैं, तो मीडिया में किस-किसका उल्लेख किया जाए? निश्चय ही बहुत सारी खबरें इसलिए खबरें नहीं बन पाती हैं क्योंकि वे हमारी दिनचर्या का अंग बन चुकी होती हैं। तो क्या स्त्री की नियति बदलने में मीडिया के सभी जनसंचार माध्यमों की ओर से हमें बिल्कुल निराशा ही हाथ लगने वाली है? क्या यह मान लेना चाहिए कि मीडिया स्त्री की उपेक्षा या स्त्री विरोध के लिए अभिशप्त हैं, अतः वह इस वर्ग के लिए कुछ कर नहीं सकता?
इस लेख के कुछ अंश राजकिशोर द्वारा लिखित पुस्तक पत्रकारिता के नए परिप्रेक्ष्य से लिए गए हैं। राजकिशोर जी सभार.......


Wednesday, November 13, 2013

गंदगी से बू आने लगी.........

गंदगी से बू आने लगी.........

भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की सभी सभ्यताओं ने अपने-अपने क्रमिक विकास में नारी को नीचे और नीचे धकेलते हुए पुरुष की शारीरिक सामथ्र्य और बौद्धिक श्रेष्ठता को तो स्थापित किया ही है साथ ही नारी के साथ सबसे क्रूर उपहास यह किया कि उसे एक देह मात्र में समेट कर रख दिया। पुरुष द्वारा स्थापित इस भार के नीचे स्त्री की समस्त प्रतिभा, अद्भूत शैक्षणिक योग्यता, प्रत्युत्पन्नमतित्व और सारी योग्यताएं गौण बन कर रह गई, यानि न के बराबर हो गई। अगर कुछ बचा तो वह है नारी देह का सौष्ठव और सौंदर्य। यह मानसिकता वर्षों से चली आ रही है। सदियों से चली आ रही इस मानसिकता का प्रभाव यह हुआ कि नारी का सुंदर शारीरिक रूप ही पुरुष और समाज द्वारा स्वीकार किया जाने लगा। क्योंकि पुरुष तो पुरुष, स्त्री समाज में भी नारी की प्रतिभा, और योग्यता की अपेक्षा सुंदर शरीर को ही वरीयता प्रदान की जाने लगी है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि ‘‘पुरुष की अपेक्षा स्त्री में सौंदर्य-बोध अधिक होता है। जिसको हम बचपन में बच्चों के व्यवहार के स्वरूप में साफ तौर पर देख सकते हैं कि लड़कियां जहां घर-घर खेलती हैं और अपनी मां के सौंदर्य सामग्रियों का उपयोग करती रहती है, वहीं लड़के दिन भर चोर-सिपाही तथा और भी बहुत सारे खेल खेलते देखे जा सकते हैं। जो लड़के-लड़कियों को उनके व्यवहार से कहीं न कहीं अलग करता है। वैसे हम आदिकाल से ही देखते आए हैं कि स्त्री अपने शरीर को विभिन्न अलंकारों से सुसज्जित सुशोभित करती आई है। पुरुष की दृष्टि में, पुरुष के वर्चस्ववाद समाज में, सुंदर देह ही स्त्री की पहचान बनी थी। वैसे बीसवीं शताब्दी में शिक्षा के प्रसार और स्त्री मुक्ति के संदर्भ में आंदोलनों ने नारी विमर्श के अनेक प्रश्नों को जन्म देकर स्त्री को अपने अस्तित्व और अस्मिमा के प्रति जागरूक तो बना दिया। परंतु औद्योगिक क्रांति और उपभोक्तावादी संस्कृति ने वस्तुओं के प्रचार के लिए विज्ञापनों का सहारा लिया। और विज्ञापन को लुभावना बनाने के दृष्टिकोण से सुंदर देह से बढ़कर और क्या हो सकता था तो स्वाभाविक परिणति के रूप में सदियों की दासता निद्रा से जागती स्त्री को पुरुष ने फिर सुंदर शरीर के रूप में विज्ञापन की वस्तु बना दिया। उसने स्त्री शरीर के अद्भुत रोमांच और आनंद को भली प्रकार पहचान लिया। अतः उसने स्त्री शरीर से व्यावसायिक लाभ कमाने और नारी देह तथा नारी सौंदर्य को अपना व्यवसाय-व्यापार बढ़ाने का साधन बना लिया। विडंबना तो यह रही कि पुरुष की मनोवृत्ति को पहचान कर भी स्त्री नहीं संभली। वह अपने ही देह प्रदर्शन, सौंदर्य प्रदर्शन, में जाने-अनजाने रस लेने लगी है। यही कारण है कि ‘‘ब्यूटी पार्लरों, मॉडलिंग कंपनियों, नाइट क्लबों, रेस्तराओं, होटलों, कॉल सेंटरों, शॅपिग मॉल्स और भी असंख्य स्थानों पर काम करने वाले कर्मचारियों में युवतियों की संख्या बड़ी तेजी से दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।’’  जो आज आने-अनजाने में कहीं न कहीं अश्लील है और यह समाज में अश्लीलता को बढ़ावा देता है।
हालांकि इसके मूल में कई कारण हैं जो स्त्रियां खुद ही अपनी देह का प्रदर्शन करने लगी हैं। वैसे इसके विश्लेषण से जो तथ्य ज्ञात होते हैं उससे साफ स्पष्ट है कि पुरुष और पश्चिमी संस्कृति ही इसके मूल में विराजमान है। क्योंकि एक तरफ पुरुष जहां नारी को तरह-तरह से उत्पीड़त करके उसको अपने काबू में रखना चाहता है। दूसरी तरफ पुरुष नारी को उपभोग की वस्तु (भोग्या) के रूप में भी प्रदर्शित करना चाहता है ताकि अपनी कामुक इच्छाओं की पूर्ति कर सके। वहीं पश्चिमी संस्कृति से ओत-प्रोत होकर नारियां ने इसे ही अपना हथियार बना लिया है जिसको हम भारतीय संस्कृति में विराजमान देवी-देवताओं की कहानियों में भी पढ़ सकते हैं कि किस प्रकार विश्वामित्र और भसमाशुर और न जाने कितने ऐसे पुरुष जिनको नारियों ने अपनी देह के द्वारा या तो उनकी तपस्या भंग की या फिर उसे मारवाने में सहयोग किया। ठीक वो ही प्रवृत्ति को अपनाते हुए और पुरुष की विकृत सोच जो नारी देह पर हमेशा से केंद्रित रही है उसे समझ लिया है। तभी तो आज के परिपे्रक्ष्य में नारी अपनी देह को ही अपना ब्राहमास्त्र के रूप में इस्तेमाल करने लगी हैं। यदि यहां इस बात का भी विश्लेषण कर लिया जाए कि नारी के सुंदर देह पर कौन-कौन मोहित हुआ है तो अपवाद स्वरूप शायद यदाकदा ऐसा कोई मिल जाए जो इससे प्रभावित नहीं हुआ हो, नहीं तो ऐसा कोई पेड़ उपजा नहीं, जिसे हवा न लगी हो।
आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो सभी पुरुष इसकी गिरफ्त में आ चुके हैं। और अब तो स्त्रियां भी ऐसा ही करने लगी हैं। ताकि वो अपनी देह से मुनाफा कमा सके। मुनाफा कमाने की इस नीति के चलते वो इस अश्लीलता के दलदल में गले तक धंस चुकी हैं। इन्हीं की देखा-देखी आने वाली नई पीढ़ी भी इन्हीं के पदचिह्न पर चल पड़ी है। वैसे देखा जाए तो समाज में यह गंदगी पहले से ही मौजूद रही है। इस गंदगी की शुरूआत पुरुष समाज द्वारा ही हुई है जो धीरे-धीरे पुरुष प्रधान समाज द्वारा बढ़ती गई। अब आलम यह हो चुका है कि इसमें महिलाओं की सहभागिता के कारण इस गंदगी में बदबू आने लगी है। जो कहीं न कहीं समाज को पूर्णतः गदला रही है। हालांकि स्वयं द्वारा उत्पन्न इस गंदगी से अब समाज भी सकते में आ गया है कि इसका आने वाला भविष्य क्या होगा? यह तो एक ही कहावत चरितार्थ होती है कि बोए पेड़ बबूल का, तो अमीया कहां से पाए........ क्योंकि गंदगी का सफाया पहले ही नहीं किया गया तभी तो इसमें अब बू आने लगी है तो अब पछताने से क्या फायदा। 

गंदगी से बू आने लगी.........

गंदगी से बू आने लगी.........

भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की सभी सभ्यताओं ने अपने-अपने क्रमिक विकास में नारी को नीचे और नीचे धकेलते हुए पुरुष की शारीरिक सामथ्र्य और बौद्धिक श्रेष्ठता को तो स्थापित किया ही है साथ ही नारी के साथ सबसे क्रूर उपहास यह किया कि उसे एक देह मात्र में समेट कर रख दिया। पुरुष द्वारा स्थापित इस भार के नीचे स्त्री की समस्त प्रतिभा, अद्भूत शैक्षणिक योग्यता, प्रत्युत्पन्नमतित्व और सारी योग्यताएं गौण बन कर रह गई, यानि न के बराबर हो गई। अगर कुछ बचा तो वह है नारी देह का सौष्ठव और सौंदर्य। यह मानसिकता वर्षों से चली आ रही है। सदियों से चली आ रही इस मानसिकता का प्रभाव यह हुआ कि नारी का सुंदर शारीरिक रूप ही पुरुष और समाज द्वारा स्वीकार किया जाने लगा। क्योंकि पुरुष तो पुरुष, स्त्री समाज में भी नारी की प्रतिभा, और योग्यता की अपेक्षा सुंदर शरीर को ही वरीयता प्रदान की जाने लगी है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि ‘‘पुरुष की अपेक्षा स्त्री में सौंदर्य-बोध अधिक होता है। जिसको हम बचपन में बच्चों के व्यवहार के स्वरूप में साफ तौर पर देख सकते हैं कि लड़कियां जहां घर-घर खेलती हैं और अपनी मां के सौंदर्य सामग्रियों का उपयोग करती रहती है, वहीं लड़के दिन भर चोर-सिपाही तथा और भी बहुत सारे खेल खेलते देखे जा सकते हैं। जो लड़के-लड़कियों को उनके व्यवहार से कहीं न कहीं अलग करता है। वैसे हम आदिकाल से ही देखते आए हैं कि स्त्री अपने शरीर को विभिन्न अलंकारों से सुसज्जित सुशोभित करती आई है। पुरुष की दृष्टि में, पुरुष के वर्चस्ववाद समाज में, सुंदर देह ही स्त्री की पहचान बनी थी। वैसे बीसवीं शताब्दी में शिक्षा के प्रसार और स्त्री मुक्ति के संदर्भ में आंदोलनों ने नारी विमर्श के अनेक प्रश्नों को जन्म देकर स्त्री को अपने अस्तित्व और अस्मिमा के प्रति जागरूक तो बना दिया। परंतु औद्योगिक क्रांति और उपभोक्तावादी संस्कृति ने वस्तुओं के प्रचार के लिए विज्ञापनों का सहारा लिया। और विज्ञापन को लुभावना बनाने के दृष्टिकोण से सुंदर देह से बढ़कर और क्या हो सकता था तो स्वाभाविक परिणति के रूप में सदियों की दासता निद्रा से जागती स्त्री को पुरुष ने फिर सुंदर शरीर के रूप में विज्ञापन की वस्तु बना दिया। उसने स्त्री शरीर के अद्भुत रोमांच और आनंद को भली प्रकार पहचान लिया। अतः उसने स्त्री शरीर से व्यावसायिक लाभ कमाने और नारी देह तथा नारी सौंदर्य को अपना व्यवसाय-व्यापार बढ़ाने का साधन बना लिया। विडंबना तो यह रही कि पुरुष की मनोवृत्ति को पहचान कर भी स्त्री नहीं संभली। वह अपने ही देह प्रदर्शन, सौंदर्य प्रदर्शन, में जाने-अनजाने रस लेने लगी है। यही कारण है कि ‘‘ब्यूटी पार्लरों, मॉडलिंग कंपनियों, नाइट क्लबों, रेस्तराओं, होटलों, कॉल सेंटरों, शॅपिग मॉल्स और भी असंख्य स्थानों पर काम करने वाले कर्मचारियों में युवतियों की संख्या बड़ी तेजी से दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।’’  जो आज आने-अनजाने में कहीं न कहीं अश्लील है और यह समाज में अश्लीलता को बढ़ावा देता है।
हालांकि इसके मूल में कई कारण हैं जो स्त्रियां खुद ही अपनी देह का प्रदर्शन करने लगी हैं। वैसे इसके विश्लेषण से जो तथ्य ज्ञात होते हैं उससे साफ स्पष्ट है कि पुरुष और पश्चिमी संस्कृति ही इसके मूल में विराजमान है। क्योंकि एक तरफ पुरुष जहां नारी को तरह-तरह से उत्पीड़त करके उसको अपने काबू में रखना चाहता है। दूसरी तरफ पुरुष नारी को उपभोग की वस्तु (भोग्या) के रूप में भी प्रदर्शित करना चाहता है ताकि अपनी कामुक इच्छाओं की पूर्ति कर सके। वहीं पश्चिमी संस्कृति से ओत-प्रोत होकर नारियां ने इसे ही अपना हथियार बना लिया है जिसको हम भारतीय संस्कृति में विराजमान देवी-देवताओं की कहानियों में भी पढ़ सकते हैं कि किस प्रकार विश्वामित्र और भसमाशुर और न जाने कितने ऐसे पुरुष जिनको नारियों ने अपनी देह के द्वारा या तो उनकी तपस्या भंग की या फिर उसे मारवाने में सहयोग किया। ठीक वो ही प्रवृत्ति को अपनाते हुए और पुरुष की विकृत सोच जो नारी देह पर हमेशा से केंद्रित रही है उसे समझ लिया है। तभी तो आज के परिपे्रक्ष्य में नारी अपनी देह को ही अपना ब्राहमास्त्र के रूप में इस्तेमाल करने लगी हैं। यदि यहां इस बात का भी विश्लेषण कर लिया जाए कि नारी के सुंदर देह पर कौन-कौन मोहित हुआ है तो अपवाद स्वरूप शायद यदाकदा ऐसा कोई मिल जाए जो इससे प्रभावित नहीं हुआ हो, नहीं तो ऐसा कोई पेड़ उपजा नहीं, जिसे हवा न लगी हो।
आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो सभी पुरुष इसकी गिरफ्त में आ चुके हैं। और अब तो स्त्रियां भी ऐसा ही करने लगी हैं। ताकि वो अपनी देह से मुनाफा कमा सके। मुनाफा कमाने की इस नीति के चलते वो इस अश्लीलता के दलदल में गले तक धंस चुकी हैं। इन्हीं की देखा-देखी आने वाली नई पीढ़ी भी इन्हीं के पदचिह्न पर चल पड़ी है। वैसे देखा जाए तो समाज में यह गंदगी पहले से ही मौजूद रही है। इस गंदगी की शुरूआत पुरुष समाज द्वारा ही हुई है जो धीरे-धीरे पुरुष प्रधान समाज द्वारा बढ़ती गई। अब आलम यह हो चुका है कि इसमें महिलाओं की सहभागिता के कारण इस गंदगी में बदबू आने लगी है। जो कहीं न कहीं समाज को पूर्णतः गदला रही है। हालांकि स्वयं द्वारा उत्पन्न इस गंदगी से अब समाज भी सकते में आ गया है कि इसका आने वाला भविष्य क्या होगा? यह तो एक ही कहावत चरितार्थ होती है कि बोए पेड़ बबूल का, तो अमीया कहां से पाए........ क्योंकि गंदगी का सफाया पहले ही नहीं किया गया तभी तो इसमें अब बू आने लगी है तो अब पछताने से क्या फायदा। 

Tuesday, October 29, 2013

सोच - महिलावादी

सोच - महिलावादी
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नारी विकास की बात अधिकार प्राप्ति से जोड़ना तब तक खोखली लगती है जब तक नारी पर चर्चा न कर ली जाए। क्योंकि कर्तव्य के बिना अधिकार प्राप्ति सम्मान नहीं दिला पाता। महिला संगठनों व महिलाओं को अगर अपने अधिकारों की स्वीकृति समाज से चाहिए तो उन्हें अपने कर्तव्यों पर भी चर्चा करनी होगी। ये कत्र्तव्य कैसे होगें? इसका निर्धारण वर्तमान हालात कर सकते हैं। पुरुष समाज को भी वर्तमान हालात में महिलाओं की मांग स्वीकारना होगा तथा महिलाओं के मतानुसार उनके द्वारा निर्धारण किए जाने वाले कर्तव्य पर यथा उचित मोहर भी लगानी होगी। महिलावादी समाज उपयुक्त वाक्यों से सहमत नहीं भी हो सकती है क्योंकि उन्हें पुरुषों से स्वीकारोक्ति लेना स्वीकार्य नहीं है। लेकिन यह केवल सिद्धांत स्तर पर ही है क्योंकि आधी आबादी पुरुषों की भी है। अतः पुरुषों की सहमति आवश्यक है। महिलावादी समाज सबसे पहले महिला के कर्तव्य पर चर्चा करे फिर अधिकार की बात करे तो महिला समाज से ज्यादा पुरुष समाज महिला अधिकारों का पक्षधर होगा।
महिलावादी समाज की प्रमुख मांग है उनके अस्तित्व और देह पर केवल उन्हीं का निर्णय व अधिकार हो। लेकिन इस अधिकार की मांग करने में महिलावादी संगठन चूक कर जाते हैं। वह निरंकुशता के साथ अपनी मांगों को मनवाना चाहते हैं जबकि वर्तमान समय लोकतंत्र का है। महिलावादी संगठन महिला विकास की बात करते हैं लेकिन उनके कार्यों से ऐसा लगता है कि वो पांच-दस सालों में ही महिला को विकसित बनाने का स्वप्न देख रही है। उनका यह स्वप्न देखना बुरा नहीं है बस स्वप्न को असलियत में बदलने की प्रक्रिया अप्रसंगिक है। क्योंकि विकास एक प्रक्रिया है जिसमें काफी लंबा समय लगता है। सदियों के फासले पांच-दस सालों में तय कर पाना व्यवहार की दुनिया में संभव नहीं दिख पाता। अधिकारों की स्वीकृति समाज की प्रकृति पर भी निर्भर करती है। पश्चिम का समाज और भारतीय समाज में काफी अंतर है। पश्चिम समाज के विकास और भारतीय समाज के विकास की यात्रा भी अलग-अलग है। प्रत्येक समाज अपनी जरूरत के हिसाब से कानून बनाता है। भारतीय समाज में प्राचीन काल में जो कानून बने वह निश्चित तौर पर वर्तमान महिलावादी समाज को असहज बनाता है लेकिन समाज में परिवर्तन स्वाभाविक रूप से होते रहते हैं। अगर वर्तमान नारीवादी समाज अपने कत्र्तव्यों के माध्यम से यह साबित कर दे कि भारतीय समाज का विकास तभी संभव है जब महिला को महिला से संबंधित सभी अधिकार प्राप्त हों। तब समाज स्वतः ही महिला को यह अधिकार दे देगा, लेकिन अगर महिलावादी विचारधारा ने पश्चिमी समाज का उदाहरण देकर भारतीय समाज को बदलने के लिए मजबूर करने की कोशिश की, जो कि वर्तमान महिलावादी समाज कर रहा है तो ऐसे समय में समाज इसकी इजाजत बिलकुल नहीं देगा। क्योंकि तुलना का कोई आधार नहीं है।
वैसे भी स्वाभाविक है कि अगर आप किसी को किसी की तुलना में कमतर आंकते हैं तो प्रथमतः वह व्यक्ति या समाज अपनी प्रतिष्ठा पर इसे आघात मानता है। क्योंकि प्रत्येक समाज ने एक लंबा सफर तय किया है और फिर उसे कमतर बताया जाना वो भी निरंकुशता के साथ समाज कभी स्वीकार नहीं करेगा। अतः महिलाओं को यह चाहिए कि भारतीय समाज को विदेश समाज से तुलना न करें। भारतीय समाज में ही रहकर भारतीय समाज के विकास की बात करके भारतीय समाज को यह एहसास दिलाए कि अब महिलाओं के कंधे पुरुषों के साथ मिलकर काम करने के लायक हो चुके हैं। तब भारतीय समाज इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकेगा। अगर महिलाओं को अपने अधिकारों मिल भी जाते हैं तो क्या उनकी समाज में व पुरुषों के मुकाबले बराबर की प्रतिष्ठा कायम करने में क्या वो सफल हो पाएंगी? यह शोध का विषय हो सकता है।
वैसे आधुनिकता, उत्तराधुनिकता और विकास के परिप्रेक्ष्य में महिलावादी संगठनों ने एक खाका बना रखा है पुरूषों के विरूद्ध। जिस खाके की रूपरेखा हमेशा से ही पश्चिमी सभ्यता से ओतपोत रही है और यह सभ्यता हमेशा से पुरूषों के विरूद्ध, पुरूषों को गरियाने का काम करती आई है। जिसने आज मुखर रूप अख्तियार कर लिया है। वैसे महिलावादी संगठनों ने जहां एक ओर महिलाओं को अधिकार दिलाने की पुरजोर वकालत की, वहीं उसने कहीं न कहीं भारतीय संस्कृति को दूषित भी किया है। जिसको वह अपना अधिकार मानने लगी है्ं। परंतु अपने अधिकारों की चकाचैंध ने उन्हें इस प्रकार अंधा कर दिया है कि वह यह मानने को कदापि तैयार नहीं है कि, संस्कृति को दूषित करने में वो भी जिम्मेदार है। तभी वो आज अश्लीलता की पराकाष्ठा अपने चरम को भी पार कर चुकी है। हालांकि मैं इस बात के पक्ष में बिलकुल  नहीं हूं कि कपड़ों के पहनावे से अश्लीलता बढ़ती हो, हां इस बात के विपक्ष में जरूर हूं कि पहनावे की महिलावादी रणनीति इसका कारण हो सकती है। वैसे महिलाओं के अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहना और अधिकार की मांग जायज ही है परंतु नग्नतापूर्ण अधिकारों की मांग कहा तक जायज है यह तो महिलावादी नारियां ही इसे उचित तरीके से परिभाषित कर सकती हैं।
इतिहास के पन्नों को पलटा जाए तो ज्ञात होता है कि पहले हमारी सभ्यता मातृ सत्तात्मक थी। चाहे कबीले हो या समुदाय, हर जगह महिलावर्ग ही हावी था। यानि पूरी सत्ता का दरोमदार महिलाओं के हाथ में था। धीरे-धीरे विकास व सभ्यता का मापदंड बदलता गया और शारीरिक तौर पर कमजोर तथा उचित निर्णय न ले पाने की क्षमता के कारण महिलाओं की सत्ता को पुरूषों ने अपने हाथों में ले लिया। ताकि अपने कबीले व समुदाय की बाहरी लोगों से रक्षा कर सकें। फिर भी अधिकांशतः कामों में महिलाओं की सत्ता काम करती रही। हालांकि वक्त और सभ्यता के परिवर्तन के साथ-साथ इस सत्ता पर भी पुरूष वर्ग काबिज होता गया। और पुरूष वर्ग ने पूरी सत्ता पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया। एकाधिकार स्थापित करने के उपरांत हम देख सकते हैं कि विकास की आधारशिला की नींव भी पुरूषों के कंधों पर ही रखी गई, तब जाकर सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ। इस सभ्यता और सस्कृति के विकास पर न जाने कितनी पीढियों का हाथ है यह सब इतिहास के पन्नों में कहीं धूल खा रहा होगा। फिर भी विकास की पृष्ठभूमि का मूल आधार पुरूषों ने ही बनाया है इसमें कोई दोमत नहीं है।
फिलहाल महिलाओं के अधिकारों और उत्पीड़न की बात करें तो आज के परिप्रेक्ष्य में स्थिति विकट तो नजर आती है पर उतनी नहीं, जितना यह महिलावादी स्त्रियां इसको बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शित करने का प्रयास करती हैं। वैसे मैं इस बात को एक सिरे से नकार नहीं रहा हूं कि पुरुषों द्वारा महिलाओं का शोषण सदियों से चला आ रहा है और वर्तमान समय में भी यह लगातार जारी है। परंतु इसके मूल के प्रमुख कारणों को किसी ने खोजने की बिलकुल भी कोशिश करना मुनासिब नहीं समझा, कि वो मूल कारण क्या थे जहां से उत्पीड़न के सिलसिले की शुरूआत हुई। जिसने धीरे-धीरे विकराल रूप धारण कर लिया। मेरे नजरिए से शायद इसके पीछे महिलावादी संगठनों की विकृत सोच इसका मूल कारण हो सकते हैं। वैसे यह विकृत सोच महिलाओं को उनका अधिकार और सम्मान दिलाने की तुलना में उसे और पश्चिमी सभ्यता के चंगुल में फंसाने का काम कर रही हैं। तभी तो वर्तमान संदर्भ को मुख्य उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है कि किस प्रकार महिलाएं बाजार की वस्तु बनती जा रही हैं, वो भी अपनी स्वेच्छा से। यह सब भारतीय सभ्यता की देन नहीं अपितु, पश्चिमी सभ्यमा की चकाचैंध का नतीजा है जिससे मोहित होकर आज की महिलाएं यह भूल गई हैं कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता भी उनके जीवन में कोई मायने रखती है।
हालांकि महिलावादी संगठन हमेशा से यह कहते हुए देखे जा सकते हैं कि पुरुष समाज ने उसे बाजार की वस्तु बना दिया है। उसे इंसान के रूप में नहीं, मात्र देह के रूप में देखा जा रहा है। वस्तुतः यहां यह कहा जाए कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती, तो मेरे हिसाब से गलत नहीं होगा। इसको विभिन्न रूपों में महिलावादी संगठन खुद परिभाषित करके देखें तो स्थिति स्वतः साफ होती दिखाई देने लगेगी? यदि चाहे तो वह खुद ही विश्लेषण करें कि हवा का रूख कहां से परिवर्तित हुआ? तो महिलावादी संगठनों और महिलाओं के लिए ज्यादा बेहतर होगा। किसी के विपक्ष में अंगुली उठाने से पहले उन्हें यह बात कदािप नहीं भूलनी चाहिए कि तीन अंगुलियां उनकी तरफ भी ठीक उसी समय उठ जाती हैं, जब वो किसी की तरफ अंगुली उठते हैं।

वस्तु, बाजार, देह, अश्लीलता, प्यार के नाम पर शारीरिक संबंध क्या इनकों बढ़ावा सिर्फ और सिर्फ पुरुष दे रहे हैं? क्या इनमें महिलाओं की कोई भूमिका नहीं? क्या महिलावादी संगठन स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं को बाजार की वस्तु बनने के लिए प्रेरित करते हुए नजर नहीं आते। आंख मूद कर गरियाना हो तो किसी को भी, किसी भी वक्त गरियाया जा सकता है। फिर चाहे वो पुरुष समाज क्यों न हो। लोग तो पीठ पीछे भगवान को भी नहीं छोड़ते, फिर तो यह पुरुष ठहरे। एक ने कहा ऐसा; तो भीड़ की जमात में सब शामिल हो जाते हैं। तर्क-विर्तक करने की क्षमता तो रही नहीं, बस कूर्तक करते रहते हैं। करिए कूर्तक ही सही, आप स्वतंत्र हैं? क्योंकि आधी आबादी आपकी भी है, परंतु अच्छे-बुरे को ध्यान में रखकर। क्योंकि आप जैसा बोएंगे वैसा ही आने वाली पीढ़ी को दे सकते हैं। कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ी आपको मुंह चिढ़ाती हुई नजर आए और आप सिर्फ ढोल पीटते रहे जाए.......