Thursday, March 28, 2013

एक के साथ एक ऑफर

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एक के साथ एक ऑफर
मेरे द्वारा लिखे जाने वाला यह लेख पूर्णत: काल्‍पनिक है इसका किसी जीवित व मृत  व्‍यक्ति से कोई सरोकार नहीं है। यदि इस लेख द्वारा किसी की भावना को आहत पहुंचता है तो इसके लिए मैं तहे दिल से क्षमा चाहता हूं।
क्या आप बलात्‍कार नहीं कर पा रहे हैं..?? क्या आपका दिल दिमाग बलात्‍कार के लिए परिपक्‍य नहीं है..?? क्‍या आप नाबालिग हैं... ?? क्या आपका साहस, हिम्‍मत इसके लिए जबाव नहीं दे रही है.....?? या फिर बलात्‍कार के बाद पकड़े जाने का भय सता रहा है... ??
तो इसमें परेशान होने की कोई बात नहीं... इंटरनेट संस्‍थान लाया है आपके लिए एक नया और शानदार xxx का चमत्‍कारी यंत्र। अरे चमत्‍कारी यंत्र नहीं बलात्‍कारी यंत्र। इसको देखने मात्र से कोई भी सभ्‍य पुरूष कुछ ही मिनटों में इतना उत्‍तेजित हो जाएगा कि उसके अंदर बलात्‍कार करने की प्रवृत्ति सिर उठाने लगेगी। और आप खुद व खुद बलात्‍कार के लिए प्रेरित हो जाएंगे। इसके शानदार और जल्‍द लाभकारी होने की वजह से पूरा समाज आपसे नफरत करने लगेगा और यह भी हो सकता है कि बलात्‍कार के बाद आप पकड़े भी जाए, इसकी भी आप चिंता न करें इसके लिए फरकार लाया है भ्रष्‍टाचार बढ़ाओं यंत्र।
मैं बहुत परेशान था हर रोज किसी न किसी ने द्वारा बलात्‍कार करने की खबर सुनता रहता था। और कभी-कभी पकड़े जाने की भी खबर सुनता था। मेरी हिम्‍मत जबाव नहीं दे रही थी..मैं बहुत निराश हो गया था.. जब भी कोशिश करता दिल दिमाग काम करना बंद कर देता था... फिर मुझे मेरे एक दोस्त पपलू ने इंटरनेट संस्‍थान के xxx बलात्‍कारी यंत्र के बारे में बताया.. आप यकीन नहीं मानेंगे ये शानदार है... इसके इस्‍तेमाल से, इसका चमत्‍कार कुछ ही क्षण में देखने का मिला और अब मेरे अंदर भी बलात्‍कार करने की उत्‍तेजना आ चुकी है। इसके साथ-साथ यदि मैं बलात्‍कार करने के बाद पकड़ा भी जाता हूं तो फरकार का भ्रष्‍टाचार यंत्र मेरी रक्षा करेगा। ये तो वाकई कमाल हो गया। हैं न एक के साथ एक ऑफर।
इस xxx  बलात्‍कार यंत्र की कीमत है 10000 जी नहीं 5000 नहीं, इसकी कीमत है सिर्फ 30 रूपए से लेकर 125 रुपए.. यदि आपको पकड़े जाने का भय है तो इसके लिए आप ले सकते हैं भ्रष्‍टाचार यंत्र। जिसकी कीमत आप नहीं सामने वाला निर्धारित करता है। तो फिर देर न करें, अभी कॉल करें, अगर आप अभी कॉल करते हैं तो आपको 10 % डिस्काउंट भी दिया जाएगा... यह भुगतान आप अपने एटीएम कार्ड से भी कर सकते हैं। तो बिलकुल देर ना कीजिए.. हमें तुरंत कॉल कीजिए....
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Wednesday, March 27, 2013


हे बलात्कारी पुरुष

हमारे समाज और पुरुष वर्ग के बीच से ही उत्पन्न यह अजीमोंशान कामांध व्यक्तित्व के धनी, ये चंद लोग जिनकी संख्याओं में लगातार इजाफा होता जा रहा है। जिनकी हिम्मत की मैं दाद देना चाहता हूं, क्योंकि इन चंद लोगों की कारगुजारियों से समाज व हमारा मीडिया, हम सब को प्रतिदिन रूबरू करवाता रहता है कि फलां व्यक्ति ने आज बलात्कार किया। कितना अच्छा काम है बलात्कार करना? वो भी बिना किसी रोक-टोक के, बिना किसी भय के। वैसे इन बलात्कारियों की कोई अलग से पहचान नहीं होती, कि फलां व्यक्ति बलात्कारी है या हो सकता है। यह तो हम और आप के बीच में रहने वाला इंसान ही है जो मात्र अपनी हवस व शारीरिक पूर्ति को पूरा करने के एवज में चाहे वह नाबालिग बच्ची हो या वृद्धा, उसे अपना शिकार बना लेता है। उसे वह नोचता है, खसोटता है और पूर्ण पुरुष होने का प्रमाण देता है। वहीं पीड़िता के हाल की मत पूछो और पूछने से फायदा ही क्या। क्योंकि उसके दर्द को हम सब महसूस नहीं कर सकते। अगर पूछना है तो उस बलात्कारी से पूछो, कि उसके अंदर कैसे बलात्कार करने की प्रवृत्ति ने जन्म लिया। यह अचानक उत्पन्न हुई या फिर इस कृत्य को करने की वह पहले से ही रणनीति अपने कुंठित मस्तिष्क में बना चुका था। जिसके बाद वह केवल मौके की फिराक में था कि कब मौका हाथ लगे और मैं बलात्कार को अंजाम दूं। बलात्कार को अंजाम देने के उपरांत इन बलात्कारियों पर शोध करने की आवश्यकता है, कि बलात्कार करने के बाद वह कैसा महसूस करते हैं? और पीड़िता के बारे में उसके क्या विचार शेष हैं। क्या वह दुबारा बलात्कार करने के इच्छुक है, इसके साथ-साथ इस बात का भी अध्ययन करने की मुख्य रूप से जरूरत है कि ऐसे कौन-से हालात उत्पन्न हुए जिस कारण से उसे बलात्कार करने को मजबूर होना पड़ा।
हालांकि बलात्कार के बाद पीड़िता की मनोस्थिति का अवलोकन किया जाए तो समाज की एक हकीकत से हम सब परिचित हो जाएंगे कि किस तरह बलात्कार पीड़िता को ता-जिंदगी उस गुनाह की सजा भुगतनी पड़ती है जो उसके नहीं किया। इस सजा के दायरे में उसे जिंदगी भर उस समाज से व अपने परिजनों से नजरें झुकाकर रहना पड़ता है जिस समाज व परिवार में वह बेटी, पत्नी, मां आदि रूपों में अपनाई गई थी। आखिर गलती किसी की और सजा किसी और को। बड़ी नइंसाफी है। क्योंकि इन पीड़िताओं को इंसाफ तो मिलने से रहा, यह तो आप सब भलीभांति जानते ही होंगे?
ठीक है अब बलात्कार हो गया सो हो गया, क्यों हो हल्ला माचते हो, कि बलात्कारियों को फांसी की सजा होनी चाहिए? हल्ला मचाने की अपेक्षा इन बलात्कारी पुरुषों को किसी मंच पर विशिष्ठ अतिथि के रूप में बुलाकर उन्हें सम्मानित करना चाहिए साथ-ही-साथ उनके द्वारा अंजाम कार्यों को जनता तक प्रेषित भी करना चाहिए कि किस तरह इन बलात्कारी पुरुषों द्वारा अपनी हवस को शांत करने के लिए मासूम से लेकर वृद्धा तक को अपनी हवस का निशान बनाया है और उसकी इज्जत को सरेआम तार-तार किया है। वैसे यह कोई आसान काम नहीं है इसके लिए दिल, कलेजा, गुर्दा, हिम्मत और भी बहुत कुछ की जरूरत होती है, साथ-ही-साथ इस काम को कोई महान सोच वाला तथा शाक्तिशाली पुरुष ही अंजाम दे सकता है। जिसे समाज, कानून व्यवस्था और भारतीय दंड संहिता का दूर-दूर तक कोई भय न हो।
वैसे इन बलात्कारियों के लिए भारतीय दंड संहिता में सजा का प्रावधान है जिसे भारतीय दंड संहिता की धारा-375 में बलात्कार के कृत्य को विस्तार से परिभाषित किया गया है। तो वहीं धारा-376 में बलात्कारी के लिए सजा का प्रावधान भी है। इसके अनुसार दोषसिद्ध हो जाने पर (जो लगभग-लगभग कभी सिद्ध नहीं होता, अपवादों को छोड़कर) बलात्कारी को 7 साल से लेकर अधिकतम उम्र कैद की सजा दी जा सकती है। वैसे आजकल बलात्कारियों को मृत्युदंड (फांसी) देने के प्रावधान पर कानून बनाने की मांग जोर पकड़ रही है। जो शायद ही कभी बन सके? इस कानून के न बनने के पीछे मुख्य कारण हमारा पुरुष प्रधान समाज ही है जो कभी नहीं चाहेगा कि पुरुषों के खिलाफ कोई भी इस तरह का कानून बने, जो बाद में जाकर उनके गले की हड्डी साबित हो, जिसे न तो वह निगल सके न उगल सके।
हालांकि बलात्कार को दुनिया का जघन्यतम अपराध केवल-और-केवल कानून व्यवस्था के अंतर्गत ही माना गया है। अगर यह वास्तव में जघन्यतम अपराध की श्रेणी के दायरे में होता तो इसके ग्राफों में बाजारवाद की तरह लगातार वृद्धि नहीं देखी जाती। और इस तरह के कृत्यों पर पूर्णतः अंकुश लग गया होता। हां यह बात सही है कि बलात्कार जितना जघन्य अपराध होता है उतनी ही लंबी उसकी न्यायिक प्रक्रिया। वैसे भारत के थानों में रोजाना बलात्कार के सैकड़ों मामले दर्ज होते हैं। लेकिन दर्ज होने वाले मामले, वास्तव में होने वाले बलात्कार के मामलों के मुकाबले काफी कम होते हैं। इसका मुख्य कारण कि बलात्कार की शिकार महिला कोर्ट-कचहरी नहीं जाना चाहती, और बलात्कार को अपनी नियति मानकर चुप बैठ जाती है। पीड़िताओं की इस चुप्पीके मूल में हमारा पुरूष प्रधान समाज और सामाजिक मान्यताएं भी काम करती हैं। हमारे समाज में बलात्कार की पीड़ित महिला को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता, उसका हमेशा ही तिरस्कार किया जाता है। इसलिए अधिकतर पीड़ित महिलाएं और उनके मां-बाप बलात्कार के बाद खून का घूंट पीकर चुप हो जाते हैं। और अगर वह इंसाफ के मंदिर में जाते भी हैं तो वहां उन्हें एक लंबा इंतजार करना पड़ता है। इस लंबे इंतजार के साथ-साथ उसे पुलिस से लेकर बाहुबली तक का भी सामना विभिन्न-विभिन्न परिस्थितियों में उस व उसके परिवार को करना पड़ता है। इन सब के उपरांत भी इंसाफ मिल जाए तो भगवान ही मालिक है।
तभी तो इसी लाचार पुलिस व्यवस्था व लंबी कानूनी प्रक्रिया के चलते हम आए दिन समाज में इन बलात्कारी लोगों के किस्सों को मीडिया के द्वारा रोजाना मुखतिब होते रहते हैं। यदि समाज सजग और कानून व्यवस्था सख्त हो जाए तो शायद बलात्कार के मामलों में कुछ हद तक कमी हो जाए। और आधी आबादी कुछ तो अपने आप को इस राक्षसी समाज से सुरक्षित महसूस कर सके। नहीं तो हे बलात्कारी पुरुष आप.........................।

Monday, March 18, 2013

फिल्म और संस्कृति


फिल्म और संस्कृति
भारतीय फिल्में अपने आरंभ काल से ही हमारे समाज का आईना रही हैं। जो समाज में हो रही गतिविधियों को समय-समय पर रेखाकिंत करती आई हैं। वैसे तो सभी जानते है कि भारतीय जगत में फिल्में बनाने का संपूर्ण श्रेय दादा साहब फाल्के को जाता है, जिन्होंने सन् 1913 में राजा हरिश्चन्द्र फिल्म बनाकर फिल्मों का सूत्रपात किया और भारतीय सिनेमा को जन्म दिया। हालांकि दादा साहब फाल्के द्वारा निर्मित राजा हरिश्चन्द्र मूक फिल्म थी फिर भी दर्शकों ने इसको बहुत पसंद किया। उसके बाद अर्देशियर ईरानी द्वारा सन् 1931 में पहली बोलती फिल्म आलमआरा का निर्माण किया जिससे फिल्मी जगत में नई क्रांति उदय हुआ।
वैसे तो उस काल में अधिकांश फिल्में राजा-महाराजाओं के शौर्य व वीर गाथाओं पर बनाई जाती थी। इसके पश्चात धीरे-धीरे समाज में फैली बुराईयों पर भी आधारित फिल्मों का निमार्ण होने लगा। जिसका सकारात्मक प्रभाव हमारे समाज पर बखूबी देखने को मिला। हिंदी सिनेमा में नववास्तविकवाद तब दिखा जब विमल राय की दो बीघा जमीन, देवदास और मधुमती व राजकपूर की बूट पालिश, श्री 420 आई।  साठ के दशक में आई मुगल आजम ने नया रिकार्ड बनाया और सच्ची प्रेम कहानी को दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया। उसके बाद जिस देश में गंगा बहती है, वासु भटटाचार्य की तीसरी कसम, देव आनन्द की गाईड सभी फिल्में समाज से जुडी हुई थी। उसके बाद ही भारतीय सिनेमा में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ी। जिसमें युवा निर्देशिका मीरा नायर ने अपनी पहली फिल्म सलाम बाम्बे के लिये केन्स में गोल्डन कैमरा आवार्ड जीता। नब्बे के दशक में सूरज बडजात्या की फिल्म मैंने प्यार किया, हम आपके के कौन, हम साथ-साथ हैं और यशराज की दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे ने रोमांस, शादी के रीति-रिवाज और करवाचैथ की परिभाषा ही बदल दी। तब से हर नई विवाहिताओं को करवाचैथ का व्रत रखना भारतीय रिति-रिवाज में शामिल हो गया और हर नई विवाहित अपना पहला करवाचैथ बड़े ही धूमधाम से मनाती है। इसमें उपयोग होने वाली सामग्री की तैयारियां व्यापारी वर्ग महीनों पहले से करना प्रारंभ कर देते हैं।
अगर कहें तो आज से लगभग 25 से 30 साल पहले और आज के समाज और संस्कृति में अंतर साफ नजर आता है। पहले जब माता-पिता अपने बच्चों की शादी की बात करते थे तब बच्चों से कोई सलाह नहीं लेते थे, जिसका कारण मर्यादा थी। क्योंकि पहले माता-पिता का मानना था कि बच्चों के जीवन का सही गलत निर्णय लेना उनका काम है न कि बच्चों का। क्योंकि बच्चों को निर्णय लेने की समझ नहीं है। लेकिन आजकल माता-पिता हर छोटी-से-छोटी बात बच्चों से पूछकर ही करते हैं। जिसका कारण कही हद तक हमारी फिल्मों को ही जाता है। क्योंकि फिल्मों में वही जानकारी दिखाई जाती है, जो हमारे आसपास घटती हो रही होती हैं। फिल्मी परिदृश्य में जो भी काल्पनिक या सत्य घटनाओं पर आधिरित होती हैं वह हममें से ही किसी एक से कहीं-न-कहीं सरोकार जरूर रखती हैं। चाहे बच्चों की शिक्षा, बालिका शिक्षा, आगे बढ़ने का जुनून, कपडे पहनने का ढंग, रहने का तौर-तरीका, त्यौहार मनाने का ढंग सभी किसी-न-किसी से संबंधित होते हैं।
अब शादियों को ही ले लीजिये। पहले आम आदमी की शादियों में क्षेत्रीय रीति-रिवाजों की झलक देखने को मिलती थी, क्षेत्र के अनुसार ही बरातियों का स्वागत, भोजन, कन्यादान और पहनावा हुआ करता था। लेकिन वर्तमान में फिल्मों को देखकर लोगों ने क्षेत्रीय रीति-रिवाजों को छोडकर फिल्मों में दिखाई जाने वाली संस्कृति को अपने परिवेश में ग्रहण करना शुरू कर दिया है। पगडी पहनने से लेकर बारातों में डीजे की धुन पर थिरकते देखा जाना अब आम बात हो चही है। अगर देखा जाये तो इस बदलाव से लाखों लोगों को रोजगार मिला है, जिसमें पढे़-लिखे युवाओं से लेकर दो जून की रोटी को तरसने वाले गरीब और महिलाएं भी शामिल हैं। भारत में एक साल में सिर्फ शादी का टर्न ओवर लगभग 50 अरब रूपएं है जिसमें 25 से 30 प्रतिशत की दर से प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है।
वर्तमान में अधिकतर फिल्में नए जमाने के युवाओं पर बनाई जा रही हैं, जिसमें युवा कंप्यूटर पर काम करता और मोबाइल पर बात करता दिखाया जाता है। फिल्म थ्री इडियटस में युवाओं की सोच के बारे में बताया गया है कि कैसे माता-पिता बच्चों पर इंजीनियर, डॉक्टर, वकील आदि बनने का दबाब बनाते हैं, जबकि उन्हें उसमें रूचि ही नहीं है। फिल्म तारे जमीन पर, कोई मिल गया, जिंदगी न मिलेगी दोबारा और हाल ही रिलीज हुई काई पो चे। अधिकतर फिल्मों में युवाओं की सोच दिखाई गई है, क्योंकि वर्तमान में युवाओं की सोच आज के दृष्टिकोण से अगल हटके तथा हमेशा कुछ नया करने के जज्बों से तल्लुकात रखती है।
यह बात सही है कि हम सोचते हैं कि बच्चे फिल्में देखकर बिगड रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है, कि फिल्में देखकर ही लोगों ने अपनी पुरानी मानसिकता और सोच बदली और बदलती चीजों को अपने चिंतन मन में जगह दी। क्योंकि पहले लोगों की सीमित सोच के कारण वह संकुचित व पुराने ढ़र्रे पर आधारित मानसिकता के गुलाम हुआ करते थे। लेकिन यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि भारतीय फिल्मों ने युवाओं को जीने का नया तरीका सिखाया है। सही और गलत में निर्णय लेना सिखाया है, और यह भी बताया है कि हर इंसान में कुछ-न-कुछ अगल होता है। जिसको केवल समझने की जरूरत होती है। और इस समझ के चलते वह अपने जीवन को प्रगति के पथ पर असानी से अग्रसरित कर सकता है।
हालांकि फिल्मों के सकारात्मक पहलु के साथ-साथ इसके कुछ नकारात्मक पहलु भी हमारे समाज के सामने परिलक्षित हुए हैं। वह हैं;- अश्लीलता, हिंसक प्रवृति और नैतिकता का पतन। जिनमें अश्लीलता प्रमुख रूप हमारे समाज में फैलती जा रही है जिसका सहयोग फिल्में भी कर रही है। आज कोई भी फिल्में को ले तो उसमें कुछ-न-कुछ अंश या पूरी कहानी व उस फिल्म के गाने अश्लीलता से परिपूर्ण होते हैं। जिसका हमारे समाज पर बुरा प्रभाव देखने को मिलता है। इसके साथ ही फिल्मों में जो ऐक्टिंग होती है वैसी ही ऐक्टिंग युवा घर पर करते हैं जिससे हिंसात्मक प्रकृति बढ़ती है। युवा फिल्म कहानी, गीत-संगीत हम देखते हैं, मार-धाड़ के दृश्य ज्यादा देखते हैं और देखते हैं अश्लीलता का चित्र। यह हिंसात्मक प्रवृत्ति आदर्श समाज बनाने में घातक है। जैसे फिल्मों में एक अदाकार दूसरे अदाकर को चाकू मारता है वैसी ही मार-धाड़ की सूटिंग युवा अपने घर में करते हैं। शिक्षा संस्थानों एवं सड़कों पर करते हैं। फिल्मों से बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं इसके साथ’-साथ आजकल अंग-प्रदर्शनकारियों की कीमत भी बढ़ गई है। फिल्म निर्देशक अंग-प्रदर्शन को कलात्मक कह रहे हैं। अंत में कहे तो फिल्म माध्यमों से समाज दूषित होता जा रहा है। इसे ठीक करना बहुत मुश्किल है। जो समाज के लिए बहुत घातक है।

जनसंचार माध्यम और युवा वर्ग


जनसंचार माध्यम और युवा वर्ग
जनसंचार का अर्थ जनता के बीच विभिन्न माध्यमों से किया जाने वाला संचार है। जनसंचार का वर्तमान समय इसके परिपक्व समाज की मनोदशा, विचार, संस्कृति आम जीवन दशाओं को नियंत्रित व निदेशित कर रहा है। इसका प्रवाह अति व्यापक एवं असीमित है। जनसंचार माध्यमों द्वारा समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अधिक से अधिक अभिव्यक्ति का अवसर प्राप्त हो रहा है। स्वतंत्र जनसंचार माध्यम लोकतंत्र की आधारशिला है। अर्थात जिस देश में जनसंचार के माध्यम स्वतंत्र नहीं है वहां एक स्वस्थ लोकतंत्र का निर्माण होना संभव नहीं है। जनसंचार माध्यमों का जाल इतना व्यापक है कि इसके बिना एक सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।
हालांकि जनसंचार माध्यमों में हाल ही कुछ वर्षों में एक क्रांति का उदय हुआ है जिसे हम संचार क्रांति कहते हैं। जनमाध्यमों में क्रांति के साथ-साथ सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी क्रांति आई है। जिसने मॉर्सल मैक्लुहान के वक्तव्य को पूर्णतः सत्य कर दिया कि संपूर्ण दुनिया एक गांव में तब्दील हो जाएगी। मनुष्‍य के बोलने का अंदाज बदल जाएगा और क्रिया-कलाप भी। ऐसा ही हुआ है, आज युवा रेडियों सुन रहा है, टेलीविजन देख रहा है, मोबाइल से बात कर रहा है और अंगुलियों से कंम्प्यूटर चला रहा है। कहने का मतलब यह है कि युवा एक साथ कई तकनीकों से संचार कर रहा है। संचार का विस्तृत रूप जनसंचार है। जनसंचार माध्यमों का युवा वर्ग पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में बाते करें तो हर एक विशय की तरह इसके भी दो रूप दिखाई पड़ते हैं- सकारात्मक और नकारात्मक।
अब मुख्य प्रश्‍न यह उठता है कि आज की युवा पीढ़ी जनसंचार माध्यमों के किस पहलू पर अधिक अग्रसरित हो रही है। सकारात्मक पहलू पर या नकारात्मक पहलू पर। यह बात सही है कि जनसंचार माध्यमों के द्वारा आज का युवा वर्ग अपनी आवश्‍यकताओं की पूर्ति कर रहा है। युवाओं पर मीडिया का प्रभाव मौजूदा आंकड़ों के मुताबिक कहें तो देश की तकरीबन 58 फीसदी आबादी युवाओं की है। ये वो वर्ग है जो सबसे ज्यादा सपने देखता है और उन सपनों को पूरा करने के लिए जी-जान लगाता है। मीडिया इन युवाओं को सपने दिखाने से लेकर इन्हें निखारने तक में अहम भूमिका निभाने का काम करता है। अखबार-पत्र-पत्रिकाएं जहां युवाओं को जानकारी मुहैया कराने का गुरू दायित्व निभा रहे हैं, वहीं टेलीविजन-रेडियो-सिनेमा उन्हें मनोरंजन के साथ आधुनिक जीवन जीने का सलीका सिखा रहे हैं। लेकिन युवाओं पर सबसे ज्यादा और अहम असर हो रहा है न्यू- मीडिया का। जी हां, इंटरनेट से लेकर तीसरी पीढ़ी (थ्री-जी) मोबाइल तक का असर यूं है कि देश-दुनिया की सरहदों का मतलब इन युवाओं के लिए खत्म हो गया है। इनके सपनों की उड़ान को तकनीक ने मानों पंख लगा दिए हैं। ब्लॉगिंग के जरिए जहां ये युवा अपनी समझ-ज्ञान-पिपासा-जिज्ञासा-कौतूहल-भड़ास निकालने का काम कर रहे हैं। वहीं सोशल मीडिया साइट्स के जरिए दुनिया भर में अपनी समान मानसिकता वालों लोगों को जोड़ कर सामाजिक सरोकार-दायित्व को पूरी तन्मयता से पूरी कर रहे हैं। हाल में अरब देशों में आई क्रांति इसका सबसे तरोताजा उदाहरण है। इन आंदोलनों के जरिए युवाओं ने सामाजिक बदलाव में अपनी भूमिका का लोहा मनवाया तो युवाओं के जरिए मीडिया का भी दम पूरी दुनिया ने देखा। युवाओं पर इसका अधिक प्रभाव इसलिए पड़ा क्योंकि वे उपभोक्तावादी प्रवृति के होते हैं। वे बिना किसी हिचकिचाहट के किसी भी नई तकनीक का उपभोग करना शुरू कर देते हैं।
 यह कहना गलत नहीं होगा कि दूसरी ओर युवा वर्ग जनसंचार की चमक के माया जाल में फंसता जा रहा है। इस आलोच्य में कहा जाए तो युवाओं में तेजी से पनप रहे मनोविकारों, दिशाहीनता और कत्र्तव्यविमुखता को संचार माध्यमों के दुष्‍रिणामों से जोड़कर देखा जा सकता है। पश्चिम का अंधा अनुसरण करने की प्रवत्ति उन्हें आधुनिकता का पर्याय लगने लगी है। इनसे युवाओं की पूरी जीवन-शैली प्रभावित दिखलाई पड़ रही है जिससे रहन-सहन, खान-पान, वेषभूषा और बोलचाल सभी समग्र रूप से शामिल है। मद्यपान और धूम्रपान उन्हें एक फैशन का ढंग लगने लगा है। नैतिक मूल्यों के हनन में ये कारण मुख्य रूप से उत्तरदायी है। आपसी रिश्‍ते-नातों में बढ़ती दूरियां और परिवारों में बिखराव की स्थिति इसके दुखदायी परिणाम हैं।
इसी क्रम में बात करें तो अति आधुनिक संचार माध्यम जिसे हम न्यू मीडिया के नाम से जानते हैं वो भी जहां एक ओर युवाओं के लिए वरदान साबित हो रहा है, वहीं दूसरी ओर ये एक अभिशाप के रूप में युवाओं की दिशाहीनता को बढ़ा रहा है। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो 30 जून, 2012 तक भारत में फेसबुक व सोशल साइटों के उपयोग करने वालों की संख्या लगभग 5.9 करोड़ है जो 2010 की तुलना में 84 प्रतिशत अधिक है। इन 5.9 करोड़ लोगों में लगभग 4.7 करोड़ युवा वर्ग से सरोकार रखते हैं। अगर आंकड़ों को देखें तो भारत दुनिया का चैथा सबसे अधिक फेसबुक का इस्तेमाल करने वाला देश बन गया है। इसमें दो राय नहीं कि डिजिटल क्रांति ने युवाओं की निजता को प्रभावित किया है और युवा अपनी सोच से अपने समाज को प्रभावित कर रहे हैं।
वहीं इंडिया बिजनेस न्यूज एंड रिसर्च सर्विसेज द्वारा 1200 लोगों पर किए गए सर्वेक्षण जिनमें 18-35 साल की उम्र के लोगों को शामिल किया गया था। इसमें करीब 76 फीसदी युवाओं ने माना कि सोशल मीडिया उनको दुनिया में परिवर्तन लाने के लिए समर्थ बना रही है। उनका मानना है कि महिलाओं के हित तथा भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन में ये सूचना का एक महत्वपूर्ण स्रोत साबित हुई है। करीब 24 फीसदी युवाओं ने अपनी सूचना का स्रोत सोशल मीडिया को बताया। करीब 70 फीसद युवाओं ने ये भी माना कि किसी समूह विशेष से संबद्ध हो जाने भर से जमीनी हकीकत नहीं बदल जाएगी, बल्कि इसके लिए बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है।
वास्तव में जनसंचार माध्यमों ने ग्लोबल विलेज की अवधारणा को जन्म दिया है। जनसंचार के अंतर्गत आने वाले माध्यम है पत्र-पत्रिकाए, टीवी, रेडियों, मोबाइल, इंटरनेट। युवा वर्ग पर इन सभी जनसंचार माध्यमों ने अपना व्यापक प्रभाव छोड़ा है। इनका प्रभाव इतना शक्तिशाली है की आज के युवा इन जनसंचार माध्यमों के बिना अपने दिन की शुरुआत ही नहीं कर सकते। जैसे पत्र-पत्रिकाओं को खरीदने से ज्यादा कामुकता तथा अश्लील साहित्य, पत्र-पत्रिकाएं खरीदता व पढ़ता है और अपने चरित्र का नैतिक पतन कर अपने भविष्य को अंधकार में डालता है। इसी प्रकार टीवी जैसे सबसे प्रभावशाली माध्यम का भी युवाओं पर अच्छा और बुरा दोनों तरह का प्रभाव पड़ा है टीवी श्रव्य के साथ ही दृश्य माध्यम है जिसके कारण युवा वर्ग किसी भी विषय को भली-भांती समझ सकता है भले ही वह अधिक शिक्षित न हो परंतु युवा वर्ग इस माध्यम का भी दुरूपयोग कर नैतिक पतन करने वाले कार्यकर्मों को ही अधिक देखते हैं क्योंकि उनको तत्कालिक आनंद की प्राप्ति होती है और वे दूरगामी विनाश को नहीं समझ पाते जिससे उनका भविष्य बिगड़ता है।
हालांकि नई विद्या मोबाइल और इंटरनेट अत्याधुनिक तकनीकों के उदाहरण है। जिनका निसंकोच उपयोग अधिकांश युवाओं द्वारा किया जा रहा है। मोबाइल यह एक ऐसा माध्यम है जिससे दूर बैठे व्यक्ति के साथ बात की जा सकती है तथा अपने हसीन पलों को चलचित्रों के रूप में कैद किया जा सकता है। यह तो इसका सदुपयोग है परंतु आज युवा इस माध्यम का गलत प्रयोग कर एमएमएस जैसे दुर्व्यसनों में फस जाते हैं। इसी प्रकार इंटरनेट जनसंचार माध्यमों में सबसे प्रभावशाली है जिसने दूरियों को कम कर दिया है। इसका अधिकतर उपभोग युवा वर्ग द्वारा किया जाता है जहां इसके द्वारा युवाओं को सभी जानकारियां उपलब्ध होती हैं। ये ज्ञानवर्धन में तो सहायक है परंतु आज वर्तमान समय में युवा द्वारा इसका दुरूपयोग अधिक होता है। हालांकि संस्कारी व्यक्तियों द्वारा इस मीडिया का सही उपयोग किया जा रहा है वहीं लगभग 100 में से 85 प्रतिशत लोग पोर्न साइटों का प्रयोग करते हैं और हैंरतअंगेंज करने वाली बात है कि सर्वाधिक विजिटर भी इन पोर्न साइटों के ही हैं। इन अश्लील साइटों पर जाकर वे अपनी उत्कंठा को शांत करते हैं। परंतु वे यह नहीं जानते कि इससे उनका और समाज दोनों का नैतिक पतन होता है। साथ ही इंटरनेट के अधिक उपयोग ने साइबर क्राइम जैसे अपराधों को जन्म देकर युवाओं में अपराध करने की नई विद्या उत्पन्न कर दी है। जिससे आज का युवा वर्ग मानसिक, शारीरिक और आर्थिक पतन की ओर अग्रसरित हो रहा है। जो हमारे समाज के लिए चिंता का विषय है।
अगर निष्‍कर्ष की बात करें तो सभी जनसंचार माध्यमों ने जहां ग्लोबल विलेज, शिक्षा, मनोरंजन और जनमत निर्माण, समाज को गतिशील बनाने तथा सूचना का बाजार बनाने में सहयोग किया वही अश्लीलता, हिंसा, मनोविकार, उपभोकतावादी परवर्ती तथा समाज को नैतिक और सांस्कृतिक पतन की ओर अग्रसर किया है। अब हम युवाओं को स्वयं ही इसका चयन करना होगा कि वो किस ओर जाना चाहते हैं। बुलंदी पर या पतन की ओर?

जनसंचार माध्यम और युवा वर्ग


जनसंचार माध्यम और युवा वर्ग
जनसंचार का अर्थ जनता के बीच विभिन्न माध्यमों से किया जाने वाला संचार है। जनसंचार का वर्तमान समय इसके परिपक्व समाज की मनोदशा, विचार, संस्कृति आम जीवन दशाओं को नियंत्रित व निदेशित कर रहा है। इसका प्रवाह अति व्यापक एवं असीमित है। जनसंचार माध्यमों द्वारा समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अधिक से अधिक अभिव्यक्ति का अवसर प्राप्त हो रहा है। स्वतंत्र जनसंचार माध्यम लोकतंत्र की आधारशिला है। अर्थात जिस देश में जनसंचार के माध्यम स्वतंत्र नहीं है वहां एक स्वस्थ लोकतंत्र का निर्माण होना संभव नहीं है। जनसंचार माध्यमों का जाल इतना व्यापक है कि इसके बिना एक सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।
हालांकि जनसंचार माध्यमों में हाल ही कुछ वर्षों में एक क्रांति का उदय हुआ है जिसे हम संचार क्रांति कहते हैं। जनमाध्यमों में क्रांति के साथ-साथ सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी क्रांति आई है। जिसने मॉर्सल मैक्लुहान के वक्तव्य को पूर्णतः सत्य कर दिया कि संपूर्ण दुनिया एक गांव में तब्दील हो जाएगी। मनुष्‍य के बोलने का अंदाज बदल जाएगा और क्रिया-कलाप भी। ऐसा ही हुआ है, आज युवा रेडियों सुन रहा है, टेलीविजन देख रहा है, मोबाइल से बात कर रहा है और अंगुलियों से कंम्प्यूटर चला रहा है। कहने का मतलब यह है कि युवा एक साथ कई तकनीकों से संचार कर रहा है। संचार का विस्तृत रूप जनसंचार है। जनसंचार माध्यमों का युवा वर्ग पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में बाते करें तो हर एक विशय की तरह इसके भी दो रूप दिखाई पड़ते हैं- सकारात्मक और नकारात्मक।
अब मुख्य प्रश्‍न यह उठता है कि आज की युवा पीढ़ी जनसंचार माध्यमों के किस पहलू पर अधिक अग्रसरित हो रही है। सकारात्मक पहलू पर या नकारात्मक पहलू पर। यह बात सही है कि जनसंचार माध्यमों के द्वारा आज का युवा वर्ग अपनी आवश्‍यकताओं की पूर्ति कर रहा है। युवाओं पर मीडिया का प्रभाव मौजूदा आंकड़ों के मुताबिक कहें तो देश की तकरीबन 58 फीसदी आबादी युवाओं की है। ये वो वर्ग है जो सबसे ज्यादा सपने देखता है और उन सपनों को पूरा करने के लिए जी-जान लगाता है। मीडिया इन युवाओं को सपने दिखाने से लेकर इन्हें निखारने तक में अहम भूमिका निभाने का काम करता है। अखबार-पत्र-पत्रिकाएं जहां युवाओं को जानकारी मुहैया कराने का गुरू दायित्व निभा रहे हैं, वहीं टेलीविजन-रेडियो-सिनेमा उन्हें मनोरंजन के साथ आधुनिक जीवन जीने का सलीका सिखा रहे हैं। लेकिन युवाओं पर सबसे ज्यादा और अहम असर हो रहा है न्यू- मीडिया का। जी हां, इंटरनेट से लेकर तीसरी पीढ़ी (थ्री-जी) मोबाइल तक का असर यूं है कि देश-दुनिया की सरहदों का मतलब इन युवाओं के लिए खत्म हो गया है। इनके सपनों की उड़ान को तकनीक ने मानों पंख लगा दिए हैं। ब्लॉगिंग के जरिए जहां ये युवा अपनी समझ-ज्ञान-पिपासा-जिज्ञासा-कौतूहल-भड़ास निकालने का काम कर रहे हैं। वहीं सोशल मीडिया साइट्स के जरिए दुनिया भर में अपनी समान मानसिकता वालों लोगों को जोड़ कर सामाजिक सरोकार-दायित्व को पूरी तन्मयता से पूरी कर रहे हैं। हाल में अरब देशों में आई क्रांति इसका सबसे तरोताजा उदाहरण है। इन आंदोलनों के जरिए युवाओं ने सामाजिक बदलाव में अपनी भूमिका का लोहा मनवाया तो युवाओं के जरिए मीडिया का भी दम पूरी दुनिया ने देखा। युवाओं पर इसका अधिक प्रभाव इसलिए पड़ा क्योंकि वे उपभोक्तावादी प्रवृति के होते हैं। वे बिना किसी हिचकिचाहट के किसी भी नई तकनीक का उपभोग करना शुरू कर देते हैं।
 यह कहना गलत नहीं होगा कि दूसरी ओर युवा वर्ग जनसंचार की चमक के माया जाल में फंसता जा रहा है। इस आलोच्य में कहा जाए तो युवाओं में तेजी से पनप रहे मनोविकारों, दिशाहीनता और कत्र्तव्यविमुखता को संचार माध्यमों के दुष्‍रिणामों से जोड़कर देखा जा सकता है। पश्चिम का अंधा अनुसरण करने की प्रवत्ति उन्हें आधुनिकता का पर्याय लगने लगी है। इनसे युवाओं की पूरी जीवन-शैली प्रभावित दिखलाई पड़ रही है जिससे रहन-सहन, खान-पान, वेषभूषा और बोलचाल सभी समग्र रूप से शामिल है। मद्यपान और धूम्रपान उन्हें एक फैशन का ढंग लगने लगा है। नैतिक मूल्यों के हनन में ये कारण मुख्य रूप से उत्तरदायी है। आपसी रिश्‍ते-नातों में बढ़ती दूरियां और परिवारों में बिखराव की स्थिति इसके दुखदायी परिणाम हैं।
इसी क्रम में बात करें तो अति आधुनिक संचार माध्यम जिसे हम न्यू मीडिया के नाम से जानते हैं वो भी जहां एक ओर युवाओं के लिए वरदान साबित हो रहा है, वहीं दूसरी ओर ये एक अभिशाप के रूप में युवाओं की दिशाहीनता को बढ़ा रहा है। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो 30 जून, 2012 तक भारत में फेसबुक व सोशल साइटों के उपयोग करने वालों की संख्या लगभग 5.9 करोड़ है जो 2010 की तुलना में 84 प्रतिशत अधिक है। इन 5.9 करोड़ लोगों में लगभग 4.7 करोड़ युवा वर्ग से सरोकार रखते हैं। अगर आंकड़ों को देखें तो भारत दुनिया का चैथा सबसे अधिक फेसबुक का इस्तेमाल करने वाला देश बन गया है। इसमें दो राय नहीं कि डिजिटल क्रांति ने युवाओं की निजता को प्रभावित किया है और युवा अपनी सोच से अपने समाज को प्रभावित कर रहे हैं।
वहीं इंडिया बिजनेस न्यूज एंड रिसर्च सर्विसेज द्वारा 1200 लोगों पर किए गए सर्वेक्षण जिनमें 18-35 साल की उम्र के लोगों को शामिल किया गया था। इसमें करीब 76 फीसदी युवाओं ने माना कि सोशल मीडिया उनको दुनिया में परिवर्तन लाने के लिए समर्थ बना रही है। उनका मानना है कि महिलाओं के हित तथा भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन में ये सूचना का एक महत्वपूर्ण स्रोत साबित हुई है। करीब 24 फीसदी युवाओं ने अपनी सूचना का स्रोत सोशल मीडिया को बताया। करीब 70 फीसद युवाओं ने ये भी माना कि किसी समूह विशेष से संबद्ध हो जाने भर से जमीनी हकीकत नहीं बदल जाएगी, बल्कि इसके लिए बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है।
वास्तव में जनसंचार माध्यमों ने ग्लोबल विलेज की अवधारणा को जन्म दिया है। जनसंचार के अंतर्गत आने वाले माध्यम है पत्र-पत्रिकाए, टीवी, रेडियों, मोबाइल, इंटरनेट। युवा वर्ग पर इन सभी जनसंचार माध्यमों ने अपना व्यापक प्रभाव छोड़ा है। इनका प्रभाव इतना शक्तिशाली है की आज के युवा इन जनसंचार माध्यमों के बिना अपने दिन की शुरुआत ही नहीं कर सकते। जैसे पत्र-पत्रिकाओं को खरीदने से ज्यादा कामुकता तथा अश्लील साहित्य, पत्र-पत्रिकाएं खरीदता व पढ़ता है और अपने चरित्र का नैतिक पतन कर अपने भविष्य को अंधकार में डालता है। इसी प्रकार टीवी जैसे सबसे प्रभावशाली माध्यम का भी युवाओं पर अच्छा और बुरा दोनों तरह का प्रभाव पड़ा है टीवी श्रव्य के साथ ही दृश्य माध्यम है जिसके कारण युवा वर्ग किसी भी विषय को भली-भांती समझ सकता है भले ही वह अधिक शिक्षित न हो परंतु युवा वर्ग इस माध्यम का भी दुरूपयोग कर नैतिक पतन करने वाले कार्यकर्मों को ही अधिक देखते हैं क्योंकि उनको तत्कालिक आनंद की प्राप्ति होती है और वे दूरगामी विनाश को नहीं समझ पाते जिससे उनका भविष्य बिगड़ता है।
हालांकि नई विद्या मोबाइल और इंटरनेट अत्याधुनिक तकनीकों के उदाहरण है। जिनका निसंकोच उपयोग अधिकांश युवाओं द्वारा किया जा रहा है। मोबाइल यह एक ऐसा माध्यम है जिससे दूर बैठे व्यक्ति के साथ बात की जा सकती है तथा अपने हसीन पलों को चलचित्रों के रूप में कैद किया जा सकता है। यह तो इसका सदुपयोग है परंतु आज युवा इस माध्यम का गलत प्रयोग कर एमएमएस जैसे दुर्व्यसनों में फस जाते हैं। इसी प्रकार इंटरनेट जनसंचार माध्यमों में सबसे प्रभावशाली है जिसने दूरियों को कम कर दिया है। इसका अधिकतर उपभोग युवा वर्ग द्वारा किया जाता है जहां इसके द्वारा युवाओं को सभी जानकारियां उपलब्ध होती हैं। ये ज्ञानवर्धन में तो सहायक है परंतु आज वर्तमान समय में युवा द्वारा इसका दुरूपयोग अधिक होता है। हालांकि संस्कारी व्यक्तियों द्वारा इस मीडिया का सही उपयोग किया जा रहा है वहीं लगभग 100 में से 85 प्रतिशत लोग पोर्न साइटों का प्रयोग करते हैं और हैंरतअंगेंज करने वाली बात है कि सर्वाधिक विजिटर भी इन पोर्न साइटों के ही हैं। इन अश्लील साइटों पर जाकर वे अपनी उत्कंठा को शांत करते हैं। परंतु वे यह नहीं जानते कि इससे उनका और समाज दोनों का नैतिक पतन होता है। साथ ही इंटरनेट के अधिक उपयोग ने साइबर क्राइम जैसे अपराधों को जन्म देकर युवाओं में अपराध करने की नई विद्या उत्पन्न कर दी है। जिससे आज का युवा वर्ग मानसिक, शारीरिक और आर्थिक पतन की ओर अग्रसरित हो रहा है। जो हमारे समाज के लिए चिंता का विषय है।
अगर निष्‍कर्ष की बात करें तो सभी जनसंचार माध्यमों ने जहां ग्लोबल विलेज, शिक्षा, मनोरंजन और जनमत निर्माण, समाज को गतिशील बनाने तथा सूचना का बाजार बनाने में सहयोग किया वही अश्लीलता, हिंसा, मनोविकार, उपभोकतावादी परवर्ती तथा समाज को नैतिक और सांस्कृतिक पतन की ओर अग्रसर किया है। अब हम युवाओं को स्वयं ही इसका चयन करना होगा कि वो किस ओर जाना चाहते हैं। बुलंदी पर या पतन की ओर?

चौथा स्तंभ भी जिम्मेवार है महिलाओं पर हो रहे दुष्कर्म के लिए


चौथा स्तंभ भी जिम्मेवार है महिलाओं पर हो रहे दुष्कर्म के लिए
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महिलाओं के संदर्भ में मीडिया की भूमिका की बात करें तो यह कभी संतोषजनक नहीं रही है, मीडिया ने भी पुरूषवादी सोच को आत्मसात करते हुए सदा ही उसकी उपेक्षा की है। इस उपेक्षा के साथ वो इसका इस्ते माल अपने प्रोडेक्ट के प्रचार व अपने विज्ञाप्ति उद्योगपतियों द्वारा निर्मित वस्तुओं के ग्राहक बनाने में करने लगा है। ताकि बाजार में वस्तुओं का उपभोग अधिक हो सके और इस उपभोग से मिलने वाले लाभ का कुछ अंश इन उद्योगपतियों द्वारा चढ़ौत्री के रूप में चैनल को मिले जिससे चैनल अपना गुजारा कर सकें, नहीं तो किसी सरकारी नेता से खबर के बदले में नोट को गिना सके। जैसा कि आज हो रहा है। चाहे वो खबर किसी नेता से संबंधित हो या किसी बाहुबली से, यदि जरा भी गलती नजर आती है तो पहुंच जाते है चंदा मांगने, और यह लोग भी अपने कारनामों को उजागर न करने की हड्डी डाल ही देते हैं। जिस हड्डी को चूस-चूस कर मीडिया दिनों दिन मोटा होता जा रहा है नेताओं की तरह। क्यों कि नेता जनता का खून चूसते हैं और यह बची हुई हड्डिया। बीच में फंस जाती हैं महिलाएं, जो सदा पिसने के लिए ही बनी है। क्योंकि सवर्ण समाज ने उसे कभी पनपने नहीं दिया, हमेशा उसका ति्रस्कार किया है, कभी मनु ने तो कभी सूरदास ने तो कभी भगवान राम ने। उन्हीं के पद चिहनों पर चलने वाली आज की जनता जिसने स्त्रियों को बिस्तर पर या पैरों में पसंद किया है। परंतु वो यह भूल जाते हैं कि उसको जीवन देने वाली भी एक स्त्री ही है। जिसके प्यार की छांव में वो पला बढ़ा। और यह भूल गया कि स्त्री  का सम्मा न भी करना चाहिए।
इसमें गलती किसकी है इस पर विचार करना चाहिए कि जो पुरूष मां के आंचल में पला बढ़ा, पिता के संरक्षण व बहनों का प्या र मिला तथा गुरूजनों के ज्ञान से बुद्धिमान बना, वह पुरूष महिलाओं के प्रति इतना हैवान कैसे बन जाता है। क्याक मां के पालन-पोषण, पिता के संरक्षण व बहन के प्यारर तथा गुरूजनों द्वारा दिए गए ज्ञान में कहीं कोई चूक तो नहीं रह जाती, जिस कारण पुरूष में कभी-कभी हैवानियत का जानवर भाव उत्पन्न होने लगता है और यह भाव पुरूष में अच्छे और बुरे दोनों में फर्क करना तक भूला देता है। और वह महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाने लगता है। कभी पैदा होते ही, कभी दहेज से, कभी खरीद-फरोख्त  करके, कभी घर में ही हिंसा करके तो कभी बलात्कार करके, चारों तरफ महिलाओं पर अत्या्चारों की झड़ी लगी हुई है। जो पुलिस और कानून व्यवस्था के बावजूद थमने का नाम नहीं ले रही है, यह तो किसी जिंद की भांति दिन-प्रतिदिन लगातर बढ़ती ही जा रही है। चाहे नाबालिग हो, किशोरी हो या फिर वृद्धा हो कोई इस अत्याचार से अछूता नहीं है। हो भी कैसे सकता है जब लोकतंत्र के चारों स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा प्रचार-प्रसार के माध्यम यानि मीडिया में पुरूषवादी सोच विराजमान हो। और यह सोच महिलाओं को हमेशा से दोयाम दर्जे पर लाकर खड़ा कर देता है, ताकि यह पुरूषों के समकक्ष कंधे-से-कंधा मिलाकर आगे न बढ़ सकें।
हालांकि इन सब अत्याचारों के बावजूद महिलाओं ने पुरूषों को कहीं पीछे छोड़ दिया है। पर सवाल अब भी वही रह जाता है कि हम पर अत्याचार कब तक। कब तक हमें असुरक्षा का भाव और शोषण को बर्दास्त करना पड़ेगा। क्या कोई रहनुमा इस कलयुग में राक्षसों से हम सब को मुक्ति दिलाएंगा या हमें इन बहसी पुरूषों के हाथों अकाल मौत का ग्रास हमेशा बनना पड़ेगा। क्योंकि जिस-जिस से हमने उम्मीद की वो ही हमारी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। तभी तो तीनों स्तंभों की भांति चौथा स्तंभ भी महिलाओं के पक्ष में बहुत कम खड़ा नजर आता है। वो तो एक तरफ महिलाओं को वस्तु बनाकर बाजार के समक्ष परोसने का काम करता है तो दूसरी तरफ खबर के दृष्टिकोण से, हां सनसनी खबर के दृष्टिकोण से हमेशा परोसता रहता है। वह महिलाओं की छवि को अश्लील बनाकर इस तरह परोसता है कि पुरूषवादी मस्तिष्क प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इस अश्लीलता की बमबारी से पुरूष हैवान बनने लगता है। क्योंकि कहीं-न-कहीं यह कामुक अश्लीलता उसके दिलों-दिमाग में इस कदर घर जाती है कि वो महिलाओं को अकेली पाने की फिराक में लगा रहता है ताकि अपनी हवस मिटा सके।
इस आलोच्य में कहें तो अश्लीलता का सम्राज्य आज इस कदर बढ़ता जा रहा है जिससे नाबालिग बच्चों के दिमाग भी अछूते नहीं रहे हैं वह भी आधुनिक मीडिया यानि न्यू मीडिया द्वारा अश्लील तस्वीरों व फिल्मों को लगातार देख रहें हैं और उसी तरह के कृत्यों को करने की दिन-रात फिराक में बने रहते हैं। यह आधुनिक मीडिया द्वारा उपजी एक फसल है जिसको आज की युवा पीढ़ी काट रही है जिसका खामयाजा महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है। यह खामयाजा वो कब तक भुगतती रहेगी, क्या कभी वो इस स्वतंत्र समाज की खुली हवा में सांस ले सकेगी। यही प्रश्न वो लगातार मीडिया से कर रही है कि कब तक वो इनकी छवि को वस्तु बनाकर अपना उल्लू सीधा करता रहेगा और समाज के दरिंदों द्वारा उनका शोषण करवाता रहेगा। क्योंकि महिलाओं के साथ हो रहे शोषण में तीनों स्तंभों के साथ-साथ यह चौथा स्तंभ भी बराबर का जिम्मेवार है। अगर मीडिया को अपने ऊपर उठ रहे तमाम प्रश्नवाचक चिह्नों से मुक्ति चाहिए तो उसे अश्लीलता का सहारा छोड़कर महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई में सहयोग देना होगा तभी पुरूष समाज द्वारा महिलाओं पर किए जा रहे अत्याचारों से महिलाओं को मुक्ति मिल सकेगी और वो खुली हवा में आजाद पंक्षी की भांति उड़ सकेगी।

भूमंडलीकरण, संस्कृति और मीडिया
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समकालीन परिवेश में हमारे प्रतिदिन के जीवन चक्र में और लगभग सभी क्षेत्रों में मीडिया का हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया है, इसके अनेक कारण हैं। मीडिया के विभिन्न जनसंचार माध्यमों ने हमें सनसनीखेज ख़बरों का आदी बना दिया है। ‘‘इतिहास, कला, संस्कृति, राजनीतिक घटना आदि सभी क्षेत्र में सनसनीखेज तत्व हावी हैं। सनसनीखेज ख़बरें जनता के दिलो-दिमाग पर लगातार आक्रमण कर रही हैं।’’ इस हमले में अधिकाधिक सूचनाएं होती हैं। हालांकि, इन सूचनाओं की व्याख्या करने और इसकों ग्रहण करने की आवश्यकता में निरंतर गिरावट आ रही है। आज मीडिया जनता को संप्रेषित ही नहीं कर रहा बल्कि भ्रमित भी कर रहा है। यह कार्य वह अप्रासंगिक को प्रासंगिक बनाकर, पुनरावृत्ति और शोर के साथ प्रस्तुत कर रहा है। हम बराबर मीडिया से क्लिपें सुन रहे हैं। इस सबके कारण जहां मीडिया ज्यादा से ज्यादा सूचनाएं दे रहा है, वहीं दूसरी और कम-से-कम सूचना संप्रेषित कर रहा है। खास तौर पर टेलीविजन। स्मृति और घटना के इतिहास से इसका संबंध पूरी तरह टूट चुका है। यह वैश्विक मीडिया का सामान्य फिनोमिना है।
‘‘वैश्विक मीडिया मुगल अपने साम्राज्य को बढ़ाने के लिए मीडिया में ज्यादा-से-ज्यादा निवेश कर रहे हैं। साथ ही नई मीडिया एवं सूचना तकनीकी का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। राजनीतिक तनाव और टकराव के क्षेत्र में शासक वर्गों के साथ मिलकर हस्तक्षेप कर रहे हैं। उन सरकारों अथवा तंत्रों के खिलाफ जनता को गोलबंद कर रहे हैं जिन्हें वे पसंद नहीं करते।’’ भूमंडलीकरण और मीडिया मुगल की युगलबंदी स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक अभिरूचियों, संस्कारों और संस्कृति के बीच समायोजन का काम कर रही है।
इस आलोच्य में कहें तो ग्लोबलाइजेशन अर्थात् भूमंडलीकरण को प्रभावी बनाने में परिवहन, संचार और साइबरस्पेश की आधुनिक तकनीकों की केंद्रीय भूमिका रही है। मीडिया में इससे संबंधित स्वरूपों, प्रतीकों, मॉलों और लोगों का प्रसारण बढ़ा है। पूंजी का विनियमन हुआ है। संस्कृति और इच्छाओं की अभिव्यक्ति केंद्र में आ गई है और साम्राज्यवाद का एक नया स्वरूप उभरकर सामने आ चुका है। यहां साम्राज्यवाद के रूप में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद, मीडिया साम्राज्यवाद जैसे तत्व हैं। कहना गलत न होगा कि ‘‘भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में ग्लोबल का लोकल पर प्रभाव पड़ रहा है। इस प्रभाव के प्रतीक हैं- ग्लोबल ब्रांड’, यथा मैकडोनाल्ड, बर्गर किंग, पीजा हट, निकी, रीबॉक, बहुराष्ट्रीय चैनल, संगीत उद्योग और ग्लोबल विज्ञापन। वस्तुतः ग्लोबलाइजेशन ने पूरे विश्व को एक वैश्विक बाजार में बांध दिया है।’’ ‘‘आर. राबर्टसन ने ग्लोबलाइजेशनः सोशल थ्योरी एंड ग्लोबल कल्चर (1992) में वैश्वीकरण के लिए ग्लोबलाइजेशन शब्द का प्रयोग किया है। इसमें ग्लोबल और लोकल के द्वंद्व व अंतर्विरोधों की चर्चा की गई है। साथ ही यह बताया गया है कि कैसे ग्लोबल और लोकल संपर्क करते हैं।’’ उदाहरण के तौर पर नेशनल ज्योग्राफी चैनल में स्थानीय, जातीय या कबीलाई जनजीवन की प्रामाणिक कवरेज व जीवन शैली के प्रसारणों में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के नजरिए से लोकल के ग्लोबल स्तर पर जनप्रिय बनाए जाने की प्रक्रिया को देखा जा सकता है। इससे लोकल के प्रति संवेदनाएं पैदा करने में मदद मिलती है।
आज भूमंडलीकरण और मीडिया के अंतः संबंध के कारण वर्ण संकर संस्कृति और वर्णसंकर अस्मिता के सवाल केंद्र में आ गए हैं। ‘‘बहुराष्ट्रीय कंपनियां जहां इकसार संस्कृति निर्मित कर रही हैं वहीं दूसरी ओर वर्ण संकर संस्कृति और वर्णसंस्कृति अस्मिताओं को पेश कर रही है। भूमंडलीकरण के कारण मुद्रा, वस्तु व्यक्ति को निरंतर क्षेत्रीय सीमा का अतिक्रमण करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि वैश्वीकरण जिस क्रॉस संस्कृति का निर्माण कर रहा है, वह संस्कृति का सतही और क्षणिक रूप है।’’ आज भूमंडलीकरण के कारण पलायन का तत्व सामाजिक जीवन की धुरी बन चुका है। अब हम जातीय पलायन के रूप में जनता के एक जगह से दूसरी जगह निर्वासन, स्थानांतरण, शरणार्थी समस्या और घूमंतुओं को जगह-जगह देख सकते हैं। उसी तरह स्थानीय मीडिया के बजाय ग्लोबल मीडिया के बढ़ते हुए प्रभाव और उपभोक्ता संसार को हम मीडिया पलायन कह सकते हैं। साथ ही अब विचारधारात्मक पलायन के तौर पर विचारधारा के नए रूपों में नागरिकता, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, जनतंत्र, विवेकवाद आदि का जन्म हुआ है। ‘‘जेम्स करन और एम.जे. पार्क ने बताया है कि मीडिया में ऐसी बेशुमार सामग्री प्रसारित की जा रही हैं जो भूमंडलीकरण, संस्कृति और मीडिया के बारे में प्रचलित तमाम किस्म की सैद्धांतिकी को ख़ारिज करती है। आज काल्पनिक अस्मिता की ग्लोबल और लोकल दोनों ही छवि फीकी नजर आ रही है।’’
मीडिया बाजार का विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि ‘‘अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अपने देश में मजबूत आधार है या सबसे ज्यादा बड़े शहरों में आधार है। इसमें विकासशील देशों में मेक्सिको शहर, संघाई, ब्राजिंग, मुंबई, कोलकता, कैरो, जकार्ता आदि प्रमुख है। यदि भाषाई आधार पर गौर करें तो प्रथम दस भाषाओं में चीनी पहले नंबर पर है। इसके बाद हिंदी आदि का नाम आता है। हकीकत तो यह है कि मीडिया प्रवाह पर सात बड़े औद्योगिक राष्ट्रों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का साम्राज्य है। इनमें से अधिकांश अमेरिका की हैं।’’ और कहना गलत न होगा कि ये विश्व के लगभग 90 प्रतिशत जनंसख्या पर अपना अधिपत्य जमाए हुए हैं। आज विश्व मीडिया विमर्श में केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण के प्रश्न केंद्र में है। इस विमर्श में निम्नलिखित चार बिंदुओं पर एक आम सहमति खींची जा सकती है, यथा-
·        विकेंद्रीकरण के लिए विकेंद्रीकृत जनतंत्र और बहुलतावाद जरूरी है।
·        विविध माध्यमों की आवाज पर गौर करना चाहिए।
·        मीडिया जगत में वैविध्यपूर्ण अभिव्यक्ति का दायरा सिकुड़ता जा रहा है।
·        मीडिया तकनीक के उच्चतम रूप बेहद खर्चीले हैं।
हालांकि मीडिया में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को तकनीक उन्नति ने संभव बनाया है और निरंतर बना रहा है। पर्सनल कंप्यूटर, वर्ड प्रोसेसर, ग्राफिक डिजाइन, केबल प्रसार, इंटरनेट आदि ऐसे ही उत्पाद हैं। लेकिन एक सीमा तक यहां भी पूंजी है। अतः जो जितनी पूंजी निवेश कर सकता है उसके सामने संप्रेषण की उतनी ही बड़ी संभावनाओं के द्वार खुले हैं।
इस समूची प्रक्रिया ने ‘‘मार्शल मैकलुहान की धारणा यह स्पष्ट करती है कि माध्यम ही संदेश है अर्थात् मीडिया का प्रभाव संप्रेषित कंटेंट अर्थात् अंतर्वस्तु से कहीं ज्यादा होता है। अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि मीडिया जो कहना चाहता है, प्रभाव उससे कहीं ज्यादा होता है। अस्तु माध्यम ही संदेश है, इस धारणा का बार-बार हमें बदलती हुई परिस्थितियों में मूल्यांकन करना चाहिए।’’ चूंकि, हमारी सोच अंतर्वस्तु के मूल्यांकन का आदी है अतः हम यह सोचने के लिए तैयार ही नहीं है कि माध्यम भी संदेश हो सकता है। यह सच है कि कोई भी माध्यम बगैर संदेश के नहीं होता। ठीक उसी प्रकार यह भी सच है कि कोई संदेश माध्यम के बिना हम तक नहीं पहुंच सकता। कहने का मतलब है कि कंटेंट को कम करके नहीं आंकना चाहिए। किंतु, कंटेंट पर इस कदर भी जोर नहीं देना चाहिए कि माध्यम का महत्त्व घट जाए।
अस्तु, वैश्विक संस्कृति स्वभावतः सांस्कृतिक मुठभेड़ के जरिए विकास करता है। विचारों, मूल्यों एवं संस्कृतियों में सम्मिश्रण की गति आज इतनी तेज है, वैसी पहले कभी दर्ज नहीं की गई। इस संदर्भ में वैश्विक संस्कृति के साथ विभिन्न धर्मों का अंतर्विरोध भी है साथ ही विभिन्न धर्मों की धार्मिकता की बाढ़ भी दिखाई देती है। ध्यातव्य रहे कि धार्मिक विचारधाराओं को ग्रहण करके आधुनिक राज्य का उदय हुआ था किंतु भूमंडलीकरण के कारण इस आधुनिक राज्य को सबसे गंभीर चुनौतियां धार्मिक तत्वादियों से मिली है। मूल बात यह है कि मीडिया के आलोक में भूमंडलीकरण और भूमंडलीय संस्कृति का धर्म, धार्मिकता और धार्मिक तत्ववाद से वैचारिक तौर पर गहरा संबंध है। यह वस्तुतः प्रतिगामी संबंध है। इसलिए सांस्कृतिक लोकतंत्र के निर्माण में जनमाध्यम महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। इस क्रम में जनमाध्यमों के स्वरूप को जानना व समझना होगा। और, इस समग्रता के तहत मीडिया घटक एवं उसके प्रभाव का विश्लेषण अनिवार्य हो जाता है।
वैश्वीकरण मूल रूप से आर्थिक सुधार एवं प्रगति से संबंधित प्रक्रिया है। यह जहां एक और संवाद की बात करता है वहीं दूसरी और आकाशीय तथ्यों पर भी जोर देता है। इसके तीन आर्थिक पहलू होते हैं-‘‘खुला अंतरराष्ट्रीय बाजार, अंतरराष्ट्रीय निवेश और अंतरराष्ट्रीय व्यक्ति। इसका उद्देश्य सभी देशों को एकीकृत बाजार में रूपांतरित करना है। वैश्वीकरण के चिंतन का उदय मुख्य रूप से अस्सी के दशक में हुआ था, परंतु इसकी अवधारणा अति प्राचीन काल से ही मानव समाज में विद्यमान थी। जहां 17वीं सदी के मध्य में इंग्लैंड का उपनिवेशवाद आरंभ हो गया था, वहीं फ्रांस ने भी इस दिशा में अपने पाँव फैलाना शुरू कर दिया था। उपनिवेशवाद का परिणाम ही वैश्वीकरण के रूप में सामने आया।’’
वस्तुतः भूमंडलीकरण जिस बाज़ारवाद की विवेचना करता है उसका आधुनिक रूप भारत में आज से 11 वर्ष पहले सन् 1991 के आर्थिक उदारीकरण एवं खुले बाज़ार की नीति के तहत सामने आया। इसका उद्देश्य न केवल अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाना था बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत को आर्थिक रूप में खड़ा करना था। ‘‘इसके परिणाम के रूप में गरीबी उन्मुलन, रोजगार में वृद्धि, श्रम में गुणवत्ता की परिकल्पना की गई थी। इस परिकल्पना को मूर्त रूप प्रदान करने के उद्देश्य से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वार भारत में खोल दिए गए। इसके बाद की स्थिति पूर्ण रूप से विदेशी कंपनियों के पक्ष में बनती चली गई।’’ ये कंपनियां अधिकाधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से एक नई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश का निर्माण कर रही हैं। इनके प्रभाव से जनसंचार माध्यम भी अछूते नहीं हैं। इनके द्वारा एक ऐसे परिवेश का निर्माण किया जा रहा है जो भारतीय उपमहाद्वीप के लिए सर्वथा प्रतिकूल है। विदेशी कंपनियों के आगमन ने तो भारतीय उद्योगों के अस्तित्व पर प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया है। इसके प्रभाव में रंगा मीडिया जाने-अंजाने अश्लीलता, आतंकवाद, पृथकतावाद, सांप्रदायिकता आदि को बढ़ावा दे रहा है। साथ-ही-साथ मीडिया साम्राज्यवाद को भी बल मिल रहा है। आज जनमाध्यम सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध बहुजातीय राष्ट्रों में मनोरंजन के नाम पर अभिजात्यवाद, उपभोक्तावाद और राष्ट्रीय विखंडन को बढ़ावा दे रहे हैं। हमें राष्ट्रीय हित में मीडिया को नीतियों के स्तर पर इस रूप में स्वीकार करने की आवश्यकता है जिससे लोकतांत्रिक मूल्य संरक्षित रहें।