Sunday, October 23, 2011

कांग्रेसी चुनावी जीत का इतिहास


कांग्रेसी चुनावी जीत का इतिहास

लोकतांत्रिक प्रणाली में जीत सतत सावधानी] सतत मेहनत और लोक कसौटी पर खरे उतरने से मिलती है। इसके बावजूद अगर हम कांग्रेस की चुनावी जीत का इतिहास पलटेंगे तो तसवीर खुद-व-खुद साफ होती नजर आयेगी कि सीटों की संख्या सरकार बना तो देती है, सरकार टिकाना उसमें एकदम भिन्न बात होती है।

सन् 1951 के समय से गौर करें तो जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस को 44.0 फीसदसी वोट से 364 सीटें मिली थीं। यह आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू का सबसे मोहक व चमकीला सर्वण दौर था। इसके बावजूद भी कांग्रेस 50 फीसदी मत भी न ला सकी, जबकि लोकतंत्र बहुमत की बात करता है और बहुमत का मतलब है 51 फीसदी मत मिलना। जो कांग्रेस को आज तक नहीं मिलें।

संपूर्ण चुनाव का विश्लेषण करें तो सन् 1957 में 47.788 फीसदी मत से कांग्रेस को मिलीं 371 सीटें। सन् 1962 में यह आंकड़ा 44.72 फीसदी के हिसाब से 361 सीटें। यह जवाहर काल का अंत था। इसके बाद सन् 1967 में कांग्रेस को 40.78 फीसदी मत से 283 सीटें ही मिल सकी। सन् 1971 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस तोड़ने का दांव खेला और अपने बल पर 43.68 फीसदी मत से 352 सीटें बटोर लायी। यह करीब-करीब जवाहरलाल नेहरू के समकक्ष का प्रदर्शन था। इसके बाद जो हुआ सब जानते हैं कि किसी प्रकार इंदिरा जी ने अपनी मनमानी का राजनीतिक खेल खेला। जो भारतीय परिदृश्य में पहले कभी नहीं देखा गया। सन् 1973-74 को 352 बहुमत वाली सरकार धराशायी हो गयी। सन् 1977 के चुनाव में सब कुछ गवां कर कांग्रेस ने 34.52 फीसदी मतों से 154 सीटें ही ला सकीं। 352 सीटों वाली कांग्रेस जो पाठ नहीं पढ़ सकी, जनता पार्टी के मोरारजी देसाई भी नहीं पढ़ सकें और 1980 को फिर से चुनाव हुआ। 1977 के परिणाम के मुगालते में रहने वाली जनता पार्टी इस बार ऐसी पिटी की पार्टी जैसी उसकी कोई हैसियत नहीं बची और इंदिरा गांधी 42.69 फीसदी मत से 353 सीटें पा गई।

इसके बाद सन् 1984 को हुई इंदिरा गांधी की शर्मनाक हत्या के बाद 1984 में दुवारा चुनाव हुए। जिसमें इंदिरा गांधी के सुपुत्र राजीव गांधी ने 49.01 फीसदी मतों से 404 सीटों पर अपार बहुमत जुटा लिया। यह पहला अवसर था कि जब कोई पार्टी करीब-करीब 50 फीसदी जैसा समर्थन जुटाने में कामयाब हो सकी। लेकिन 404 सीटों वाली राजीव गांधी की सरकार 1989 में हुए चुनाव के बाद 39.33 फीसदी यानी 197 सीटें ही जुटा सकी तथा गिरने से खुद को नहीं रोक सकी। 1991 में फिर राजीव गांधी की हत्या की लहर पर कांग्रेस सवार हुई तो 35.66 फीसदी मतों से 266 सीटें जमा कर ले गई। 1996 से 2004 तक कांग्रेस 144 से 145 सीटों के बीच में घूमती रही। 1991 के बाद यह पहला मौका है कि कांग्रेस ने 200 सीटों की सीमा पर की है।

यह आंकडे बताते हैं कि सीटों की संख्या से सरकार की ताकत नहीं मापी जा सकती है। लोकतंत्र में आप आंकड़ों से जीतते हैं लेकिन आंकड़ों से जीत नहीं हैं। सवाल तो अब आगे खड़ा होता है कि भ्रष्टाचार और मंहगाई की मार झेल चुकी जनता आने वाले चुनाव में कांग्रेस को फिर से सरकार के रूप में चाहेंगी या फिर एक बार फिर से कांग्रेस को मुंह की खानी पडे़गी यह मेरे लिए एक शोध का विषय और कांग्रेस सरकार के लिए चिंता का विषय हो सकता है।

सभार
सबलोग] जुलाई] 2009

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