भारतीय लोकतंत्र में मीडिया की विशेष भूमिका का उल्लेख संविधान में कहीं भी नहीं है.इस संदर्भ में मडिया यदि यह कहता है कि वह लोकतंत्र का प्रहरी है नागरिक अधिकारों का संरक्षक है. तब राज्य के तीनों स्तंभ विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका मीडिया से सवाल करते हैं. यथा
· मीडिया को यह भूमिका किसने प्रदान की
· मीडिया का Mandate कहां है, उसका स्रोत क्या है
अमेरिकी संविधान में (पहला संशोधन) प्रेस की स्वतंत्रता का उल्लेख है. वहां प्रेस की आजादी की गांरटी दी गई है.लेकिन,हमारे यहां मीडिया प्रेस की आजादी नागरिकों के मूल अधिकारों से जुडा हुआ है( संविधानिक अनु. १९(१)(ए) ) इस तहर भारतीय संविधान ने नागरिक से प्रेस का गर्भनाल संबंध स्थापित कर दिया है.ऐसा करने से मीडिया नागरिकों के प्रति अनिवार्य रूप से जिम्मेदार स्वीकार कर लिया गया है. और भारतीय मीडिया, अगर भारतीय नागरिकों की अभिव्यक्ति के मूल अधिकार का औजार, हथियार, और प्रतिनिधि बनकर नहीं रह सकती, तो उसे स्वतंत्र रहने का भी अधिकार नहीं है. नागरिकों के प्रति यह जवाबदेही ही हमारे मीडिया की आजादी की गांरटी है.
निसंदेह, स्वतंत्रता और स्वच्छंदता दोनों अलग अलग धारणाएं हैं. स्वतंत्रता व्यक्ति के व्यक्तित्व को विकसित करने का माध्यम है,जबकि स्वच्छंदता एक स्वार्थपूर्ण मनोदशा.व्यक्ति को ईकाइ मानकर प्रदान की गई स्वतंत्रता सामाजिक हितों के प्रति संवेदनशील होनी ही चाहिए.
समकालीन मीडिया आजादी के दो पहलू हैं,पहला,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का है जिसमें नागरिकों के विचार विनिमय जैसे अधिकार शामिल हैं. दूसरा पहलू, उघोग धंधे का भी है, जिसमें पूंजी लगाने वाला व्यक्ति लाभ कमाता है. इस संदर्भ में, २६ जून २००२ को दिल्ली के अंग्रेजी दैनिक पायनियर के प्रथम पृष्ठ पर छपे खबर Freedom of the Press शीर्षक को समझने की जरूरत है.
लगभग सभी सक्रिय मीडियाकर्मी इस बात से तो अवगत होगें ही कि २६ जून भारतीय पत्रकारिता में काला दिन के नाम से जाना जाता है. मगर इसी दिन पायनियर का यह खबर प्रेस की किस स्वतंत्रता की ओर इशारा कर रहा है, खबर को पढने पर पता चला. वहां प्रेस की स्वतंत्रता का मतलब भारत सरकार द्वारा प्रिंट मीडिया में २६ प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI)की अनुमति का स्वागत.
जिस तरह के प्रश्न आपके जेहन में आ रहें हैं मैं भी उसी स्थिति से गुजरता यह सोचता रहा कि जिस देश की स्वतंत्रता आंदोलन में, अंग्रेजी दासता से मुक्ति में, मीडिया खासकर अखबारों की सक्रिय भूमिका रही हो, उसी देश का अखबार FDI को प्रेस की आजादी कैसे घोषित कर सकता है. मगर मीडिया आजादीके दूसरे पहलू पर अगर गंभीरता से विचार करें तो यह तर्कहीन नहीं है. क्योंकि, आजादी के बाद पचास वर्षों तक जिस तरह से FDI पर पाबंदी लगा, मीडिया को एकाधिकार पूंजी का तिलिस्म बनाया गया था, उससे आज वह मुक्त हो रहा है. तो क्या हम इसे मीडिया की आजादी का यर्थाथ माने लें.
मीडिया राज्य का चौथा अंग है परन्तु जब इस विचार को डगलस कैटर ने लोकप्रिय किया था, उस वक्त स्वतंत्र,शक्तिवान एवं मूल्य प्रवण सत्ता के रूप में उसने मीडिया की कल्पना की थी, आज यर्थाथ में मीडिया वैसे नहीं है वह शक्तिवान जरूर है,लेकिन स्वतंत्रता या मूल्य के बल पर नहीं, पूंजी के बल पर. मीडिया आजाद तो है मगर स्वतंत्र नहीं. स्वतंत्रता की भूख इतने भर से कि जब वह अपनेको बिलकुल असहाय महसूस करता है तभी उसकी आवाज निकलती है,पेड न्यूज जैसी प्रवृति व मीडिया दलालों की बढती सक्रियता इस का प्रत्यक्ष प्रमाण है.
मीडिया के इस यर्थाथ को समझना भी जरूरी है कि क्या हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही माध्यमों की स्वतंत्रता मान लें नहीं क्योंकि दोनों के चरित्र अगह है अगर अभिव्यक्ति की आजादी और माध्यमों की आजादी दोनों को यदि एक ही मान लिया जायेगा तब माध्यम ही प्रमुख ही जाएगें और हम माध्यमों के लिए पूंजी निवेश करने वाला निर्णायक.इस प्रकारण इसके उपयोग में निर्णायक अधिकार वही जाकर के केन्द्रित और सीमित हो जायेंगे जो माध्यमों के स्वामी हैं.इस बात को हम उस घटना से समझा सकते है जिसमें डच अखबार जलेन्डस पोस्टेम ने इस्लाम के पैगम्बर के बारे में कार्टून भेजने के लिए खुला निमंत्रण जारी किया था. यहां कार्टूनिस्टों की अभिव्यक्ति की आजादी, व्यक्तिगत आजादी का घोतक है जिसका मैं समर्थन करता हॅू परन्तु यह तर्क मूखर्तापूर्ण होगा कि जलेन्डस पोस्टेम को इसे प्रकाशित करने का अधिकार था.क्योंकि जब इस अखबार ने कार्टूनिस्टों को ईनाम के लिए ऐसे कार्टून बनाने का निमंत्रण देता है तो निश्चित रूप से वह अखबार अभिव्यक्ति की आजादी का दुरूपयोग माध्यमों की आजादी के संदर्भ में कर रहा था. स्पष्ट अखबार का उद्देश्य किसी खास धर्म को मानने वालों की भावनाओं को चोट पहुंचाना था.
प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष न्यायामूर्ति पी.वी.सांवत का कहना है कि मीडिया को यह याद दिलाना आवश्यक हो गया है कि वह कोई व्यवसायिक प्रतिष्ठान नहीं, बल्कि राज्य का चौथा स्तंभ है. इसके कंधों पर विलक्षण जिम्मेदारियां और दायित्व है वह समाज के बौिद्धक, मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य को बढावा दें और अध पतन और विखंडन को रोके.उसे समाज की बहुलवादी सांस्कृतिक विरासत की रक्षा और समृद्ध करना है. जनतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को माध्यमों की स्वतंत्रता नहीं माना जा सकता, इन दोनों को अलग करके देखना होगा. मगर यह कहना गलत नहीं होगा कि अभिव्यक्ति के माध्यमों की तलाश करनी होगी,जिसकी संकल्पना वैश्वीकरण के युग में पूंजी की अनिवार्यता के बिना संभव नहीं. लेकिन क्या यही अंतिम शर्त होगी.
पंडित नेहरू ने कहा था प्रेस की संपूर्ण स्वतंत्रता चाहूंगा.भले ही इसकी कीमत स्वतंत्रता के दुरूपयोग के रूप में चुकाने का अंदेशा क्यों न हो. लेकिन आज शायद पंडित नहेरू जिंदा होते तो मीडिया की स्वतंत्रता के बदलते यर्थाथ को देख अपनी कथनी को न्याय संगत न कहते.